ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
यस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो वृष॒भो न भी॒म एकः॑ कृ॒ष्टीश्च्या॒वय॑ति॒ प्र विश्वाः॑। यः शश्व॑तो॒ अदा॑शुषो॒ गय॑स्य प्रय॒न्तासि॒ सुष्वि॑तराय॒ वेदः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः । वृ॒ष॒भः । न । भी॒मः । एकः॑ । कृ॒ष्टीः । च्य॒वय॑ति । प्र । विश्वाः॑ । यः । शश्व॑तः । अदा॑शुषः । गय॑स्य । प्र॒ऽय॒न्ता । अ॒सि॒ । सु॒स्वि॑ऽतराय । वेदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम एकः कृष्टीश्च्यावयति प्र विश्वाः। यः शश्वतो अदाशुषो गयस्य प्रयन्तासि सुष्वितराय वेदः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। तिग्मऽशृङ्गः। वृषभः। न। भीमः। एकः। कृष्टीः। च्यवयति। प्र। विश्वाः। यः। शश्वतः। अदाशुषः। गयस्य। प्रऽयन्ता। असि। सुस्विऽतराय। वेदः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
विषय - 'प्रयन्ता' प्रभु
पदार्थ -
[१] (यः) = जो (तिग्मशृङ्गः वृषभः न) = तेज सींगोंवाले बैल के समान (भीमः) = शत्रुओं के लिये भयङ्कर हैं। वे (एकः) = अकेले ही (विश्वाः) = सब (कृष्टी:) = शत्रुभूत मनुष्यों को (प्रच्यावयति) = स्थान से प्रच्युत करनेवाले हैं। हम जब अपने हृदयों में इन प्रभु का स्थापन करते हैं, तो ये हमारे सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं का विनाश करनेवाले होते हैं। [२] (यः) = जो प्रभु (अदाशुषः) = अदाश्वान् (अदाता) = अयज्ञशील पुरुष के (शश्वतः) = बहुत भी (गयस्य) = धन के (प्रयन्ता असि) = नियमन करनेवाले, अपहरण कर लेनेवाले हैं, वे ही प्रभु (सुष्वि-तराय) = खूब ही सवन करनेवाले यज्ञशील पुरुष के लिये (वेदः) = धन को (प्रयन्तासि असि) = देनेवाले हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु उपासक के शत्रुओं को नष्ट करनेवाले हैं। अयज्ञशील के धन का अपहरण करनेवाले हैं तथा यज्ञशील के लिये धन को देनेवाले हैं।
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