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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निं वो॑ दे॒वम॒ग्निभिः॑ स॒जोषा॒ यजि॑ष्ठं दू॒तम॑ध्व॒रे कृ॑णुध्वम्। यो मर्त्ये॑षु॒ निध्रु॑विर्ऋ॒तावा॒ तपु॑र्मूर्धा घृ॒तान्नः॑ पाव॒कः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । वः॒ । दे॒वम् । अ॒ग्निऽभिः॑ । स॒ऽजोषाः॑ । यजि॑ष्ठम् । दू॒तम् । अ॒ध्व॒रे । कृ॒णु॒ध्व॒म् । यः । मर्त्ये॑षु । निऽध्रु॑विः । ऋ॒तऽवा॑ । तपुः॑ऽमूर्धा । घृ॒तऽअ॑न्नः । पा॒व॒कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं वो देवमग्निभिः सजोषा यजिष्ठं दूतमध्वरे कृणुध्वम्। यो मर्त्येषु निध्रुविर्ऋतावा तपुर्मूर्धा घृतान्नः पावकः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। वः। देवम्। अग्निऽभिः। सऽजोषाः। यजिष्ठम्। दूतम्। अध्वरे। कृणुध्वम्। यः। मर्त्येषु। निऽध्रुविः। ऋतऽवा। तपुःऽमूर्धा। घृतऽअन्नः। पावकः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (अग्निम्) = उस अग्रेणी (वः देवम्) = तुम्हारे जीवनों को प्रकाशित करनेवाले प्रभु को (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ में (अग्निभिः) =अग्नियों के साथ (सजोषाः) = समानरूप से प्रीतिपूर्वक उपासना करनेवाले होते हुए (यजिष्ठं दूतम्) = अत्यन्त संगतिकरण योग्य व पूज्य (दूतम्) = ज्ञान-सन्देश को प्राप्त करानेवाला (कृणुध्वम्) = करो। प्रभु के ज्ञान-सन्देश को तुम सुननेवाले बनो। इसके लिये तुम सदा अग्नियों के साथ समानरूप से प्रीतिपूर्वक उपासना करनेवाले बनो। माता-पिता, आचार्य ही अग्नि हैं। इनके समीप रहते हुए सदा उपासनामय जीवनवाले बनो। [२] यही उस प्रभु की प्राप्ति का मार्ग है (यः) = जो (मर्त्येषु) = मरणधर्मा प्राणियों में (निध्रुवि: नितरां) = ध्रुव हैं। (ऋतावा) = ऋत का रक्षण करनेवाले हैं। (तपुर्मूर्धा) = तपसियों के शिरोमणि हैं। (घृतान्न:) = ज्ञानरूप अन्न को प्राप्त करानेवाले हैं [घृतं = दीप्ति] और इस ज्ञानरूप अन्न के द्वारा (पावकः) = हमारे जीवनों को पवित्र बनानेवाले हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम 'माता-पिता व आचार्य' रूप अग्नियों के साथ प्रभु की उपासना करते हुए प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें ज्ञानरूप अन्न देकर पवित्र जीवनवाला बनाते हैं।

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