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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्र॒त्नो हि क॒मीड्यो॑ अध्व॒रेषु॑ स॒नाच्च॒ होता॒ नव्य॑श्च॒ सत्सि॑ । स्वां चा॑ग्ने त॒न्वं॑ पि॒प्रय॑स्वा॒स्मभ्यं॑ च॒ सौभ॑ग॒मा य॑जस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒त्नः । हि । क॒म् । ईड्यः॑ । अ॒ध्व॒रेषु॑ । स॒नात् । च॒ । होता॑ । नव्यः॑ । च॒ । सत्सि॑ । स्वाम् । च॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्व॑म् । पि॒प्रय॑स्व । अ॒स्मभ्य॑म् । च॒ । सौभ॑गम् । आ । य॒ज॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्नो हि कमीड्यो अध्वरेषु सनाच्च होता नव्यश्च सत्सि । स्वां चाग्ने तन्वं पिप्रयस्वास्मभ्यं च सौभगमा यजस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्नः । हि । कम् । ईड्यः । अध्वरेषु । सनात् । च । होता । नव्यः । च । सत्सि । स्वाम् । च । अग्ने । तन्वम् । पिप्रयस्व । अस्मभ्यम् । च । सौभगम् । आ । यजस्व ॥ ८.११.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 11; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] हे प्रभो! आप (प्रत्न:) = सनातन पुरुष हैं। (हि) = निश्चय से (कम्) = आनन्दस्वरूप हैं। (ईड्यः) = स्तुति के योग्य हैं। (च) = और (सनात्) = सदा से (अध्वरेषु) = इन हिंसारहित कर्मों में (होता) = होता है, हमारे लिये सब कुछ देनेवाले हैं [ हु दाने] । आप के द्वारा ही हम इन अध्वरों को कर पाते हैं। (च) = और (नव्यः सत्सि)‍ = स्तुत्य होते हुए आप हमारे हृदयों में आसीन होते हैं । [२] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! आप (स्वां तन्वम्) = अपने इस शरीरभूत मुझ को (च) = अवश्य (पिप्रयस्व) = प्रीणित करिये। आप से सब प्रकार के स्वास्थ्य को प्राप्त करके मैं तृप्ति का अनुभव करूँ। (च) = और हे प्रभो! आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (सौभगम्) = सुभगत्व को (आयजस्व) = सर्वथा संगत करिये। आपके अनुग्रह से मैं 'समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान व वैराग्य' रूप भग को प्राप्त करनेवाला बनूँ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ही सदा से ईड्य व स्तुत्य हैं। मैं प्रभु का शरीर बनूँ, प्रभु को अपनी आत्मा समझँ । प्रभु मेरे लिये सभी सौभाग्यों को प्राप्त करायें। प्रभु के उपासन से अपना पूरण करता हुआ मैं 'पर्वत' बनूँ। पर्वत बननेवाला ही 'काण्व' मेधावी है। यह इन्द्र का आराधन करता हुआ कहता है-

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