ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
य इ॑न्द्र सोम॒पात॑मो॒ मद॑: शविष्ठ॒ चेत॑ति । येना॒ हंसि॒ न्य१॒॑त्रिणं॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । इ॒न्द्र॒ । सो॒म॒ऽपात॑मः । मदः॑ । श॒वि॒ष्ठ॒ । चेत॑ति । येन॑ । हंसि॑ । नि । अ॒त्रिण॑म् । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य इन्द्र सोमपातमो मद: शविष्ठ चेतति । येना हंसि न्य१त्रिणं तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । इन्द्र । सोमऽपातमः । मदः । शविष्ठ । चेतति । येन । हंसि । नि । अत्रिणम् । तम् । ईमहे ॥ ८.१२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - 'सोमपातमः ' मदः
पदार्थ -
[१] हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिशालिन् (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विदारक प्रभो ! (यः) = जो (सोमपातमः) = अतिशेयन सोम का पान करनेवाला (मदः) = उल्लास चेतति जाना जाता है, (तम्) = उस मद को (ईमहे) = हम माँगते हैं। अर्थात् हम प्रभु की उपासना करते हुए सोमरक्षण से होनेवाले मद को प्राप्त हों। [२] हे इन्द्र ! हमें आप उस सोमरक्षण जनित मद को प्राप्त कराइये (येन) = जिससे कि आप (अत्रिणम्) = [अद भक्षणे] हमें खा ही जानेवाली वासनाओं को (निहंसि) = निश्चय से विनष्ट करते हैं। सोमरक्षण से शरीरस्थ रोगों के नाश की तरह हृदयस्थ वासनाओं का भी विनाश होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु स्मरण द्वारा हम सोम का रक्षण करते हुए उल्लासमय जीवनवाले हों और हमारा विनाश करनेवाली वासनाओं को सुदूर विनष्ट कर डालें।
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