ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
इ॒मं स्तोम॑म॒भिष्ट॑ये घृ॒तं न पू॒तम॑द्रिवः । येना॒ नु स॒द्य ओज॑सा व॒वक्षि॑थ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । स्तोम॑म् । अ॒भिष्ट॑ये । घृ॒तम् । न । पू॒तम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । येन॑ । नु । स॒द्यः । ओज॑सा । व॒वक्षि॑थ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं स्तोममभिष्टये घृतं न पूतमद्रिवः । येना नु सद्य ओजसा ववक्षिथ ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । स्तोमम् । अभिष्टये । घृतम् । न । पूतम् । अद्रिऽवः । येन । नु । सद्यः । ओजसा । ववक्षिथ ॥ ८.१२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
विषय - प्रभु-स्तवन के तीन लाभ
पदार्थ -
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! (इमं स्तोमम्) = इस स्तोत्र को आप हमें प्राप्त कराइये। यह स्तोत्र (अभिष्टये) = हमारे इष्टों की प्राप्ति के लिये हो । (घृतं न पूतम्) = यह स्तोम घृत के समान पवित्र हो । घृत जैसे मलों के क्षरण के द्वारा शरीर को दीप्त करता है, इसी प्रकार यह स्तोम हमारे मानस मलों को दूर करके हमें दीप्त ज्ञानवाला बनाये। [२] हे प्रभो ! हमें वह स्तोम प्राप्त कराइये, (येन) = जिससे (नु) = अब (सद्यः) = शीघ्र ही (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (ववक्षिथ) = [वहसि] आप हमें लक्ष्य- स्थान पर पहुँचाते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-स्तवन इष्ट को प्राप्त कराता है, हमें पवित्र दीप्त जीवनवाला बनाता है, और ओजस्विता को देता हुआ लक्ष्य स्थान की ओर ले चलता है।
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