ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
येन॒ सिन्धुं॑ म॒हीर॒पो रथाँ॑ इव प्रचो॒दय॑: । पन्था॑मृ॒तस्य॒ यात॑वे॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । सिन्धु॑म् । म॒हीः । अ॒पः । रथा॑न्ऽइव । प्र॒ऽचो॒दयः॑ । पन्था॑म् । ऋ॒तस्य॑ । यात॑वे । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन सिन्धुं महीरपो रथाँ इव प्रचोदय: । पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । सिन्धुम् । महीः । अपः । रथान्ऽइव । प्रऽचोदयः । पन्थाम् । ऋतस्य । यातवे । तम् । ईमहे ॥ ८.१२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
विषय - सोमरक्षण के चार लाभ
पदार्थ -
[१] (येन) = जिस सोमपानजनित मद से, हे प्रभो ! (सिन्धुम्) = ज्ञान नदी को, (महीः अपः) = महत्त्वपूर्ण कर्मों को (रथान् इव) = शरीर- रथों को जैसे लक्ष्य की ओर उसी प्रकार (प्रचोदयः) = आप प्रेरित करते हो (तं ईमहे) = उस मद की हम याचना करते हैं। अर्थात् यह सोमपानजनित मद [क] हमारे अन्दर ज्ञानेन्द्रियों को प्रवाहित करता है, [ख] इससे हमारे कर्म उत्तम होते हैं, [ग] हमारे शरीर-रथ लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। [२] हम इसलिए इस सोमपानजनित मद की साधना करते हैं कि (ऋतस्य) = यज्ञ के व सत्य के पन्थां यातवे मार्ग पर हम चलनेवाले हों।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण के चार लाभ हैं-ज्ञान प्राप्ति, उत्तम कर्म, शरीर रथ का लक्ष्य की ओर बढ़ना तथा ऋत के मार्ग का आक्रमण |
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