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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 42/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नाभाकः काण्वः अर्चानाना वा देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यथा॑ वा॒मत्रि॑रश्विना गी॒र्भिर्विप्रो॒ अजो॑हवीत् । नास॑त्या॒ सोम॑पीतये॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । वा॒म् । अत्रिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । गीः॒ऽभिः । विप्रः॑ । अजो॑हवीत् । नास॑त्या । सोम॑ऽपीतये । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा वामत्रिरश्विना गीर्भिर्विप्रो अजोहवीत् । नासत्या सोमपीतये नभन्तामन्यके समे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । वाम् । अत्रिः । अश्विना । गीःऽभिः । विप्रः । अजोहवीत् । नासत्या । सोमऽपीतये । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 42; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] हे अश्विना प्राणापानो! यथा- जिस प्रकार विप्रः - ज्ञानी अत्रिः - काम-क्रोध व लोभ से ऊपर उठा हुआ अत्रि गीर्भिः = स्तुतिवाणियों के द्वारा वाम्= आपको अजोहवीत् पुकारता है, उसी प्रकार मैं भी आपका आराधन करता हूँ। [२] हे नासत्या - सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! आप सोमपीतये शरीर में सोम के [ वीर्यशक्ति के] रक्षण के लिए होते हैं। आपकी साधना से (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम काम-क्रोध लोभ से ऊपर उठकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। यह साधना ही सोम रक्षण द्वारा हमारे शत्रुओं का शातन करेगी।

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