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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 33
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वामिद्धि त्वा॒यवो॑ऽनु॒नोनु॑वत॒श्चरा॑न् । सखा॑य इन्द्र का॒रव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । इत् । हि । त्वा॒ऽयवः॑ । अ॒नु॒ऽनोनु॑वतः । चरा॑न् । सखा॑यः । इ॒न्द्र॒ । का॒रवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामिद्धि त्वायवोऽनुनोनुवतश्चरान् । सखाय इन्द्र कारव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । इत् । हि । त्वाऽयवः । अनुऽनोनुवतः । चरान् । सखायः । इन्द्र । कारवः ॥ ८.९२.३३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 33
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो ! (त्वायवः) = आपकी प्राप्ति की कामनावाले (अनुनोनुवतः) = प्रतिदिन अनुक्रमेण आपका स्तवन करते हुए (सखायः) = आपके मित्रभूत ये (कारवः) = कुशलतापूर्वक कर्मों के करने के द्वारा आपका स्तवन करनेवाले स्तोता लोग (त्वां इत् हि) = आपका ही निश्चय से (चरान्) = परिचरण [उपासन] करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति की कामनावाले हों, प्रतिदिन प्रभु-स्तवन करें। कुशलतापूर्वक कर्मों को करते हुए प्रभु के सखा बनें। इन कर्मों द्वारा प्रभु की अर्चना करें। यह सतत प्रभु के उपासन करता हुआ प्रभु रूप उत्तम [सु] रक्षण स्थान [कक्ष] को प्राप्त करनेवाला 'सुकक्ष' अगले सूक्त का ऋषि है। अंग-प्रत्यंग में रसवाला यह 'आंगिरस' इन्द्र का स्तवन करता है-

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