ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 106/ मन्त्र 13
पव॑ते हर्य॒तो हरि॒रति॒ ह्वरां॑सि॒ रंह्या॑ । अ॒भ्यर्ष॑न्त्स्तो॒तृभ्यो॑ वी॒रव॒द्यश॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑ते । ह॒र्य॒तः । हरिः॑ । अति॑ । ह्वरां॑सि । रंह्या॑ । अ॒भि॒ऽअर्ष॑न् । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । वी॒रऽव॑त् । यशः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवते हर्यतो हरिरति ह्वरांसि रंह्या । अभ्यर्षन्त्स्तोतृभ्यो वीरवद्यश: ॥
स्वर रहित पद पाठपवते । हर्यतः । हरिः । अति । ह्वरांसि । रंह्या । अभिऽअर्षन् । स्तोतृऽभ्यः । वीरऽवत् । यशः ॥ ९.१०६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 106; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
विषय - ह्वरांसि अति
पदार्थ -
(हर्यतः) = कान्त व स्पृहणीय (हरिः) = रोगहर्ता सोम (रंह्या) = अपने वेग से (ह्वरांसि) = सब कुटिलताओं को अतिपवते लाँघ कर हमें प्राप्त होता है। सोम का शरीर में प्रवेश होता है और जीवन में से कुटिलभाव नष्ट हो जाते हैं। यह सोम (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिये (वीरवद्यश:) = उत्तम सन्तानों वाले यशस्वी जीवन को (अभ्यर्षन्) = प्राप्त कराता है । सोम गुण स्तवन से सोमरक्षण की रुचि जागरित होती है। इससे जहाँ सन्तान उत्तम होते हैं, हमारा जीवन बड़ा यशस्वी बनता है ।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण से कुटिलभाव नष्ट होते हैं, सन्तान उत्तम होते हैं, जीवन यशस्वी बनता है ।
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