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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    नू॒नं पु॑ना॒नोऽवि॑भि॒: परि॑ स्र॒वाद॑ब्धः सुर॒भिन्त॑रः । सु॒ते चि॑त्त्वा॒प्सु म॑दामो॒ अन्ध॑सा श्री॒णन्तो॒ गोभि॒रुत्त॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नू॒नम् । पु॒ना॒नः । अवि॑ऽभिः । परि॑ । स्र॒व॒ । अद॑ब्धः । सु॒र॒भिम्ऽत॑रः । सु॒ते । चि॒त् । त्वा॒ । अ॒प्ऽसु । मा॒दा॒मः॒ । अन्ध॑सा । श्री॒णन्तः॑ । गोभिः॑ । उत्ऽत॑रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नूनं पुनानोऽविभि: परि स्रवादब्धः सुरभिन्तरः । सुते चित्त्वाप्सु मदामो अन्धसा श्रीणन्तो गोभिरुत्तरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नूनम् । पुनानः । अविऽभिः । परि । स्रव । अदब्धः । सुरभिम्ऽतरः । सुते । चित् । त्वा । अप्ऽसु । मादामः । अन्धसा । श्रीणन्तः । गोभिः । उत्ऽतरम् ॥ ९.१०७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अविभिः) = रक्षा करने वालों से (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (नूनम्) = निश्चय से (परिस्रवः) = शरीर में चारों ओर गतिवाला हो। (अदब्धः) = यह सोम रोगकृमि व वासना रूप शत्रुओं से हिंसित नहीं होता। (सुरभिन्तर:) = जीवन को अतिशयेन सुगन्धित बनाता है। हे सोम ! (त्वा सुते) = तेरे उत्पन्न होने पर (चित्) = निश्चय से (अप्सु मदामः) = कर्मों में आनन्द का अनुभव करते हैं । हम (अन्धसा) = सात्त्विक अन्न के द्वारा तथा (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा इस (उत्तरम्) = अन्य सब धातुओं से उत्कृष्ट सोम को (श्रीणन्तः) = परिपक्व करते हैं। सात्त्विक अन्न 'सोम्य भोजन ' कहलाते हैं । ये भोजन सोमरक्षण की अनुकूलता वाले होते हैं। इसी प्रकार ज्ञान की वाणियों में अतिरिक्त समय को बिताने से इस सोम में वासनाओं का उबाल नहीं उत्पन्न होता ।

    भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण के होने पर जीवन रोगादि से अहिंसित व यशस्वी बनता है । शक्ति व स्फूर्ति उत्पन्न होकर कर्मों में आनन्द का अनुभव होता है। इस सोमरक्षण के लिये सात्त्विक अन्न का सेवन व स्वाध्याय साधन हैं ।

    - सूचना - यहाँ 'गोभिः ' का अर्थ 'गोदुग्ध' भी किया जा सकता है। तब अर्थ इस प्रकार होगा कि हम 'सात्त्विक अन्न व गोदुग्ध' के सेवन से सोम का परिपाक करते हैं।

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