ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 15/ मन्त्र 7
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒तं मृ॑जन्ति॒ मर्ज्य॒मुप॒ द्रोणे॑ष्वा॒यव॑: । प्र॒च॒क्रा॒णं म॒हीरिष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । मृ॒ज॒न्ति॒ । मर्ज्य॑म् । उप॑ । द्रोणे॑षु । आ॒यवः॑ । प्र॒ऽच॒क्रा॒णम् । म॒हीः । इषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं मृजन्ति मर्ज्यमुप द्रोणेष्वायव: । प्रचक्राणं महीरिष: ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । मृजन्ति । मर्ज्यम् । उप । द्रोणेषु । आयवः । प्रऽचक्राणम् । महीः । इषः ॥ ९.१५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 15; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 7
विषय - प्रभु-प्रेरणा क्रदण
पदार्थ -
[१] (एतम्) = इस (मर्ज्यम्) = शुद्ध रखने योग्य सोम को (आयवः) = गतिशील मनुष्य (द्रोणेषु) = इन शरीर रूप कलशों में [पात्रों में] (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं। वस्तुतः सोम को शुद्ध रखने का प्रकार यही है कि हम गतिशील बने रहें । गतिशीलता हमें वासनाओं के आक्रमण से बचाये रखती है। वासनाओं के अभाव में यह सोम शुद्ध बना रहता है। [२] यह शुद्ध सोम हमारे हृदय को और अधिक निर्मल बनानेवाला होता है और उस निर्मल हृदय में (मही:) = महत्त्वपूर्ण (इषः) = प्रेरणाओं को (प्रचक्राणम्) = करनेवाला होता है। सोम के द्वारा शुद्ध हुए हुए हृदय में प्रभु की प्रेरणायें सुन पड़ती हैं।
भावार्थ - भावार्थ- गतिशीलता द्वारा सोम का शोधन होता है। शुद्ध सोम हृदय को निर्मल करता हुआ हमें प्रभु प्रेरणाओं को सुनने योग्य बनाता है ।
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