ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र ते॑ सो॒तार॑ ओ॒ण्यो॒३॒॑ रसं॒ मदा॑य॒ घृष्व॑ये । सर्गो॒ न त॒क्त्येत॑शः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । सो॒तारः॑ । ओ॒ण्योः॑ । रस॑म् । मदा॑य । घृष्व॑ये । सर्गः॑ । न । त॒क्ति॒ । एत॑शः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते सोतार ओण्यो३ रसं मदाय घृष्वये । सर्गो न तक्त्येतशः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । सोतारः । ओण्योः । रसम् । मदाय । घृष्वये । सर्गः । न । तक्ति । एतशः ॥ ९.१६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - मदाय धृष्वये
पदार्थ -
[१] हे सोम ! (ओण्योः) = द्यावापृथिवी में मस्तिष्क व शरीर में (मदाय) = आनन्द [हर्ष] के लिये तथा (घृष्वये) = शत्रुओं के घर्षण के लिये मस्तिष्क में ज्ञान के प्रकाश से आनन्द की प्राप्ति के लिये तथा शरीर में रोगकृमियों के विनाश के लिये (ते रसम्) = तेरे रस को [सार को] (प्रसोतारः) = प्रकर्षेण उत्पन्न करने के लिये होते हैं। सोम [वीर्य] का सार ही ओजस् है । इस ओजस्विता से मस्तिष्क में [splendour, light] प्रकाश होता है, तथा शरीर में [bodily strength] शक्ति उत्पन्न होती है। [२] (सर्गः) = [सृष्टः ] उत्पन्न हुआ हुआ यह सोम (एतशः न) = अश्व की तरह (तक्ति) = गतिवाला होता है । इस सोम के द्वारा शरीर के सब इन्द्रियाश्व शक्तिशाली बनते हैं । शक्तिशाली बनकर ये शरीर रथ का उत्तम संचालन करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - शरीर में उत्पन्न हुआ हुआ सोम उल्लास व शत्रु विनाश के लिये होता है। इससे इन्द्रिय अश्व शक्ति सम्पन्न बनकर शरीर रथ को तीव्र गति से मार्ग पर ले चलते हैं ।
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