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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अवत्सारः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यं सूर्य॑ इवोप॒दृग॒यं सरां॑सि धावति । स॒प्त प्र॒वत॒ आ दिव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । सूर्यः॑ऽइव । उ॒प॒ऽदृक् । अ॒यम् । सरां॑सि । धा॒व॒ति॒ । स॒प्त । प्र॒ऽवतः॑ । आ । दिव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं सूर्य इवोपदृगयं सरांसि धावति । सप्त प्रवत आ दिवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । सूर्यःऽइव । उपऽदृक् । अयम् । सरांसि । धावति । सप्त । प्रऽवतः । आ । दिवम् ॥ ९.५४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अयम्) यह परमात्मा (सूर्यः इव उपदृग्) सूर्य के समान सबके कर्मों का द्रष्टा है और (अयं सरांसि धावति) यह परमात्मा ज्ञान द्वारा सर्वत्र व्याप्त है (सप्त प्रवतः आदिवम्) जो यह परमात्मा सात किरणवाले सूर्य को अपने भीतर लेकर और द्युलोक को भी एकदेशी बनाकर स्थिर हो रहा है ॥२॥

    भावार्थ - जिस प्रकार अन्य ग्रह-उपग्रहों को अपेक्षा से सूर्य स्वयंप्रकाश है, इसी प्रकार सूर्य आदिकों की अपेक्षा से परमात्मा स्वयंप्रकाश है। उस स्वयंप्रकाश स्वयंज्योति की उपासना करके सबको पवित्र बनने का यत्न करना चाहिए ॥२॥

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