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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - अतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
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    अश्व॑स्य त्वा॒ वृष्णः॑ श॒क्ना धू॑पयामि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।अश्व॑स्य त्वा॒ वृष्णः॑ श॒क्ना धू॑पयामि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।अश्व॑स्य त्वा॒ वृष्णः॑ श॒क्ना धू॑पयामि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्व॑स्य। त्वा॒। वृष्णः॑। श॒क्ना। धू॒प॒या॒मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। अश्व॑स्य। त्वा॒। वृष्णः॑। श॒क्ना। धू॒प॒या॒मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। अश्व॑स्य। त्वा॒। वृष्णः॑। श॒क्ना। धू॒प॒या॒मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे । अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे । अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वस्य। त्वा। वृष्णः। शक्ना। धूपयामि। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। अश्वस्य। त्वा। वृष्णः। शक्ना। धूपयामि। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। अश्वस्य। त्वा। वृष्णः। शक्ना। धूपयामि। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 9
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    पदार्थ -
    गृहस्थ में पिता, माता व सन्तान तीन का समावेश होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् के शब्दों में ‘पिता उत्तरपक्षः, माता दक्षिणपक्ष, पुत्रः सन्धानम् ' = एक ओर पिता है, दूसरी ओर माता है और पुत्र उन्हें जोड़नेवाला है। इन तीनों को ही अपने जीवन को सुन्दर बनाना है तभी गृहस्थ स्वर्ग बनेगा। 'कैसा जीवन बनाना है? ' इसी प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में है १. (त्वा) = तेरे द्वारा (अश्वस्य) = [अश्नुते कर्मसु ] कर्मों में व्याप्त होनेवाले (वृष्णः) = सबपर सुखों की वर्षा करनेवाले पुरुष की शक्ना ['शक्यना' में य का लोप होकर शक्ना] शक्ति से (धूपयामि) = अपने जीवन को सुगन्धित करता हूँ, अर्थात् मेरा जीवन कर्ममय, सबका भला करनेवाला व शक्तिसम्पन्न हो । हाथों में कर्म हों, मन में सब के लिए स्नेह की भावना हो तथा शरीर शक्तिसम्पन्न व स्वस्थ हो । (त्वा) = तुझे मैं मखाय यज्ञ के लिए ग्रहण करता हूँ (त्वा) = तझे इसलिए ग्रहण करता हूँ कि मैं मखस्य शीर्ष्णे यज्ञ के शिखर पर पहुँचने में समर्थ होऊँ। इस पृथिव्याः पृथिवी के देवयजने देवों के यज्ञ करने के स्थान में मैं प्रत्येक वस्तु का स्वीकार यज्ञ के लिए करता हूँ, मेरा जीवन यज्ञिय बने। मैं यज्ञरूप श्रेष्ठतम कर्मों में लगा रहूँ [ अश्व = अश व्याप्तौ ], सबपर सुखों की वर्षा करूँ [वृष् बरसना] तथा शक्तिशाली बनूँ [शक्ना] उत्तम कर्मों से, सबका भला चाहने व करने से तथा स्वास्थ्य व शक्ति से मेरा जीवन सुगन्धित हो उठे । २. इसी प्रकार गृहस्थ में विविध वस्तुओं का उपादान करती हुई माता कहती है कि मैं (त्वा) = तुझे ग्रहण करके (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले (वृष्णः) = सुखों के वर्षक व्यक्ति की (शक्ना) = शक्ति से (धूपयामि) = अपने जीवन को सुगन्धित करती हूँ। (पृथिव्या:) = इस पृथ्वी के (देवयजने) = देवों के यज्ञ करने के स्थान में (त्वा) = तुझे (मखाय) = यज्ञ के लिए और (त्वा) = तुझे मखस्य शीर्ष्ण यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए ग्रहण करती हूँ। ३. तीसरी बार इसी मन्त्रभाग का उच्चारण करता हुआ पुत्र इसी बात को दुहराता है और निश्चय करता है कि कर्मों में सदा व्याप्त रहता हुआ, सबका भला चाहता हुआ वह शक्तिशाली बनेगा। प्रत्येक पदार्थ को यज्ञियवृत्ति से ग्रहण करेगा और यज्ञ के शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करेगा। ४. इस प्रकार सङ्कल्प करके पिता, माता व पुत्र तीनों ही तीन बार इस सङ्कल्प को फिर से आवृत्त करते हैं कि (मखाय त्वा) = तुझे यज्ञ के लिए ग्रहण करता हूँ । (त्वा) = तुझे (मखस्य शीर्ष्णे) = यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए ग्रहण करता हूँ।

    भावार्थ - भावार्थ - जिस घर में पिता, पुत्र व माता सभी 'उत्तम कर्मोंवाले तथा भद्र मनोवृत्तिवाले, स्वस्थ, शक्तिसम्पन्न तथा यज्ञप्रवृत्त' होते हैं, वही घर स्वर्ग बन पाता है।

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