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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1055
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
त्वां꣢ य꣣ज्ञै꣡र꣢वीवृध꣣न्प꣡व꣢मान꣣ वि꣡ध꣢र्मणि । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५५॥
स्वर सहित पद पाठत्वा꣢म् । य꣣ज्ञैः꣢ । अ꣣वीवृधन् । प꣡व꣢꣯मान । वि꣡ध꣢꣯र्मणि । वि । ध꣣र्मणि । अ꣡थ꣢꣯ । नः । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां यज्ञैरवीवृधन्पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५५॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । यज्ञैः । अवीवृधन् । पवमान । विधर्मणि । वि । धर्मणि । अथ । नः । वस्यसः । कृधि ॥१०५५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1055
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
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विषय - यज्ञों द्वारा प्रभु का वर्धन
पदार्थ -
हे (पवमान) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले प्रभो ! (विधर्मणि) = विशिष्ट धारण के निमित्त, अर्थात् अपना उत्तम धारण करने के लिए 'हिरण्यस्तूप' लोग (त्वाम्) = आपको ही (यज्ञैः) = यज्ञों से (अवीवृधन्) = बढ़ाते हैं । यज्ञों के द्वारा ये लोग आपकी ही उपसाना करते हैं । ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः') = उस यज्ञरूप प्रभु की देवलोग यज्ञों से ही उपासना करते हैं । हे (पवमान) = प्रभो ! इस प्रकार हमारे जीवनों में यज्ञ की प्रेरणा देकर (अथ नः वस्यसः कृधि) = आप हमारे जीवनों को उत्कृष्ट बनाइए।
भावार्थ -
हम यज्ञों द्वारा प्रभु का वर्धन करें और अपने जीवनों को श्रेष्ठ बनाएँ ।
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