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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1150
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
य꣢ इ꣣द्ध꣢ आ꣣वि꣡वा꣢सति सु꣣म्न꣡मिन्द्र꣢꣯स्य꣣ म꣡र्त्यः꣢ । द्यु꣣म्ना꣡य꣢ सु꣣त꣡रा꣢ अ꣣पः꣢ ॥११५०॥
स्वर सहित पद पाठयः । इ꣣द्धे꣢ । आ꣣वि꣢वा꣢सति । आ꣣ । वि꣡वा꣢꣯सति । सु꣣म्न꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । म꣡र्त्यः꣢꣯ । द्यु꣣म्ना꣡य꣢ । सु꣣त꣡राः꣢ । सु꣣ । त꣡राः꣢꣯ । अ꣣पः꣢ ॥११५०॥
स्वर रहित मन्त्र
य इद्ध आविवासति सुम्नमिन्द्रस्य मर्त्यः । द्युम्नाय सुतरा अपः ॥११५०॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । इद्धे । आविवासति । आ । विवासति । सुम्नम् । इन्द्रस्य । मर्त्यः । द्युम्नाय । सुतराः । सु । तराः । अपः ॥११५०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1150
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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विषय - भवसागर-सन्तरण
पदार्थ -
(यः मर्त्यः) = जो व्यक्ति (इद्धे) = ज्ञान से दीप्त अपने हृदय में (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली परमात्मा के (सुम्नम्) = स्तोत्र को (आविवासति) = करता है, अर्थात् स्तोत्रों के द्वारा प्रभु की पूजा करता है, वह मनुष्य (द्युम्नाय) = ज्ञान के प्रकाश के लिए समर्थ होता है । इस व्यक्ति को प्रकाश प्राप्त होता है और परिणामत: इसके लिए (अप:) = कर्म (सुतरा:) = सुगमता से तैरने योग्य हो जाते हैं। अज्ञानी को ही कर्म बाँधते हैं, क्योंकि उसकी कर्मों में आसक्ति होती है । ज्ञानी के लिए कर्मबन्धन नहीं रहता, क्योंकि यह कर्मफल की इच्छा से ऊपर उठ जाता है । इस प्रकार यह ज्ञानी निष्काम कर्मों के परिणामस्वरूप इस जन्ममरण के चक्र को पार कर लेता है । यह भवसागर में गोते नहीं खाता रहता ।
भावार्थ -
हम प्रभु स्तवन करें। प्रभु-स्तवन से हमें प्रकाश प्राप्त हो । प्रकाश हमें निष्काम करके कर्मसन्तरण के योग्य बनाये ।
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