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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1372
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
1

उ꣣क्षा꣡ मि꣢मेति꣣ प्र꣡ति꣢ यन्ति धे꣣न꣡वो꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ दे꣣वी꣡रुप꣢꣯ यन्ति निष्कृ꣣त꣢म् । अ꣡त्य꣢क्रमी꣣द꣡र्जु꣢नं꣣ वा꣡र꣢म꣣व्य꣢य꣣म꣢त्कं꣣ न꣢ नि꣣क्तं꣢꣫ परि꣣ सो꣡मो꣢ अव्यत ॥१३७२॥

स्वर सहित पद पाठ

उक्षा꣢ । मि꣣मेति । प्र꣡ति꣢꣯ । य꣣न्ति । धेन꣡वः꣢ । दे꣣व꣡स्य꣢ । दे꣣वीः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । य꣣न्ति । निष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣣क्रमीत् । अ꣡र्जु꣢꣯नम् । वा꣡र꣢꣯म् । अ꣣व्यय꣢म् । अ꣡त्क꣢꣯म् । न । नि꣣क्त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । अ꣣व्यत ॥१३७२॥


स्वर रहित मन्त्र

उक्षा मिमेति प्रति यन्ति धेनवो देवस्य देवीरुप यन्ति निष्कृतम् । अत्यक्रमीदर्जुनं वारमव्ययमत्कं न निक्तं परि सोमो अव्यत ॥१३७२॥


स्वर रहित पद पाठ

उक्षा । मिमेति । प्रति । यन्ति । धेनवः । देवस्य । देवीः । उप । यन्ति । निष्कृतम् । निः । कृतम् । अति । अक्रमीत् । अर्जुनम् । वारम् । अव्ययम् । अत्कम् । न । निक्तम् । परि । सोमः । अव्यत ॥१३७२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1372
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 11; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

१. (उक्षा) = वह महान् प्रभु [उक्षेति महन्नाम – नि० ३.३ उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः] (मिमेति) = शब्द करता है— सृष्टि के प्रारम्भ में ही वह वेदों का ज्ञान देता है । २. (धेनवः) = ये वेदवाणियाँ 'अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा' आदि ऋषियों की प्रतियन्ति ओर जाती हैं। प्रभु उच्चारण करते हैं और ये अग्नि आदि जो ‘हिरण्यस्तूप' हैं— ऊर्ध्वरेतस् हैं, वे इन वाणियों को सुनते हैं । ३. इस प्रकार (देवस्य) = दिव्य गुणोंवाले उस प्रभु की (देवी:) = ये दिव्य वेदवाणियाँ निष्कृतम्-अग्नि आदि के पवित्र हृदय को (उपयन्ति) = सम्यक् प्राप्त होती हैं। मलिन हृदय में इनका प्रकाश कैसे हो सकता है ? ४. इन दिव्य वाणियों को प्राप्त करके यह 'हिरण्यस्तूप' (अर्जुनम्) = सोने-चाँदी [Silver-gold] के (अव्ययम्) = सनातन – कभी क्षीण न होनेवाले (वारम्) = आक्रमण को अथवा आवरण को (अत्यक्रमीत्) = लाँघ जाता है। ज्ञान प्राप्त होने पर ये धन के लोभ से ऊपर उठ जाता है । ५. (सोमः) = यह सौम्य स्वभाववाला विद्वान् (अत्कम्) = [अत सातत्यगमने] निरन्तर गतिशील होने के (न) = समान (निक्तम्) = शुद्धस्वरूप प्रभु को (परि अव्यत) = अपने में (दोहने) = पूरण करने का प्रयत्न करता है ।

नोट – १. (प्रतियन्ति) = प्रभु-वाणियाँ आती तो प्रत्येक की ओर हैं, परन्तु हमें फुरसत हो तब तो सुनें, हमें तो जीवन की उलझनें ही उलझाए रखती हैं। सरलता से चलेंगे तो अवश्य सुनेंगे । २. (निष्कृतम्) = हमारा हृदय परिमार्जित होगा तो हमें भी वे वाणियाँ अवश्य प्राप्त होंगी । ३. प्रभु पवित्र हैं, क्योंकि क्रियाशील हैं, मैं भी क्रियाशीलता के अनुपात में ही पवित्र बन पाऊँगा । ४. यह धन का आवरण-  हिरण्मयपात्र का आवरण तो अव्यय है, अपने आप नष्ट होनेवाला नहीं । इसे तो प्रयत्न करके ही दूर फेंकना पड़ेगा। ‘निष्कृतम्' का अर्थ [atonement] भी है, अतः जो भी परमेश्वर के साथ ऐक्य [at-one-ment] में होता है उसी को ये वाणियाँ प्राप्त होती हैं । 

भावार्थ -

प्रभु बोलें – हम सुनें ।

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