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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1438
ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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स꣡ न꣢ ऊ꣣र्जे꣢ व्य꣣꣬३꣱व्य꣡यं꣢ प꣣वि꣡त्रं꣢ धाव꣣ धा꣡र꣢या । दे꣣वा꣡सः꣢ शृ꣣ण꣢व꣣न्हि꣡ क꣢म् ॥१४३८॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । ऊर्जे꣢ । वि । अ꣣व्य꣡य꣢म् । प꣣वि꣡त्र꣢म् । धा꣣व । धा꣡र꣢꣯या । दे꣣वा꣡सः꣢ । शृ꣣ण꣡व꣢न् । हि । क꣣म् ॥१४३८॥


स्वर रहित मन्त्र

स न ऊर्जे व्य३व्ययं पवित्रं धाव धारया । देवासः शृणवन्हि कम् ॥१४३८॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । नः । ऊर्जे । वि । अव्ययम् । पवित्रम् । धाव । धारया । देवासः । शृणवन् । हि । कम् ॥१४३८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1438
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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पदार्थ -

चन्द्र ओषधीश है— इस सोम नामवाले चन्द्र से ओषधियों में रस का सञ्चार होता है। ओषधियों का राजा भी ‘सोम' कहलाता है । यह जब यज्ञ में आहुत होता है तब वृष्टि होकर सात्त्विक सौम्य अन्न उत्पन्न होता है। इस सौम्य अन्न से शरीर में 'सोम' की उत्पत्ति होती है । एवं, आधिदैविक सोम [चन्द्र] से पार्थिव सोम [लता] की उत्पत्ति होती है, उससे अध्यात्म सोम [semen] बनता है। इस सोम की ऊर्ध्वगति होने पर सोम [परमात्मा] के दर्शन होते हैं । एवं, इन सोमों में कार्यकारणभाव चलता है।

शरीर में उत्पन्न सोम से 'कविर्भार्गव' कहता है कि (सः) = वह तू (न:) = हमारी (ऊर्जे) = बल और प्राणशक्ति के लिए अपनी (धारया) = धारक शक्ति के साथ (पवित्रम्) = पवित्र तथा (अव्ययम्) = [अ-वि अय] विविध विषय-वासनाओं की ओर न जानेवाले हृदय की ओर (विधाव) = विशेषरूप से गतिवाला हो । वीर्य की ऊर्ध्वगति का ही परिणाम है कि १. शरीर बल व प्राणशक्ति-सम्पन्न बनता है, २. हृदय पवित्र होता है और ३. यह चञ्चलचित्त विषय-वासनाओं की ओर न जाकर स्थिर होने लगता है।

हे सोम! तू ऊर्ध्वगतिवाला ही हो, जिससे (देवासः) = लोग पवित्र हृदय व दिव्य गुणोंवाले बनकर (हि) = निश्चय से (कम्) = उस आनन्दमय प्रभु को (शृणवन्) = सुनें । पवित्र हृदय में प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है। एवं, सोम की ऊर्ध्वगति के अगले परिणाम हैं- ४. मनुष्य दिव्य गुणोंवाला बनता है ५. हृदयस्थ प्रभु की आनन्दमयी वाणी को सुनता है ।

भावार्थ -

वृष्टिजलों से उत्पन्न सात्त्विक अन्न हममें उस सोम को जन्म दे जो ऊर्ध्वगतिवाला होकर १. हमें बल व प्राणशक्तिसम्पन्न करे, २. हमारे हृदयों को पवित्र बनाये, ३. हमारे चित्तों को शान्त करे, ४. दिव्य गुणसम्पन्न बनानेवाला हो और ५. हमें प्रभुवाणी श्रवण में प्रवृत्त करे ।

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