Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 302
ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
त्वा꣢मि꣣दा꣡ ह्यो नरोऽपी꣢꣯प्यन्वज्रि꣣न्भू꣡र्ण꣢यः । स꣡ इ꣢न्द्र꣣ स्तो꣡म꣢वाहस इ꣣ह꣡ श्रु꣣ध्यु꣢प꣣ स्व꣡स꣢र꣣मा꣡ ग꣢हि ॥३०२॥
स्वर सहित पद पाठत्वा꣢म् । इ꣣दा꣢ । ह्यः । न꣡रः꣢꣯ । अ꣡पी꣢꣯प्यन् । व꣣ज्रिन् । भू꣡र्ण꣢꣯यः । सः । इ꣣न्द्र । स्तो꣡म꣢꣯वाहसः । स्तो꣡म꣢꣯ । वा꣣हसः । इह꣢ । श्रु꣣धि । उ꣡प꣢꣯ । स्व꣡स꣢꣯रम् । आ । ग꣣हि ॥३०२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिदा ह्यो नरोऽपीप्यन्वज्रिन्भूर्णयः । स इन्द्र स्तोमवाहस इह श्रुध्युप स्वसरमा गहि ॥३०२॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम् । इदा । ह्यः । नरः । अपीप्यन् । वज्रिन् । भूर्णयः । सः । इन्द्र । स्तोमवाहसः । स्तोम । वाहसः । इह । श्रुधि । उप । स्वसरम् । आ । गहि ॥३०२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 302
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
Acknowledgment
विषय - घर में पहुँच
पदार्थ -
मनुष्य जब तक अज्ञानवश स्वार्थ में रहेगा, तबतक वह अपने घर से दूर ही भटकता रहेगा। ज्ञानवृद्धि के साथ, स्वार्थ का नाश होकर, वह पुनः अपने घर की ओर मुड़ेगा और अन्त में अपने ब्रह्मलोकरूप घर में पहुँच ही जाएगा। यह स्वार्थ से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति सभी का कल्याण करनेवाला, सभी को ‘मैं' समझनेवाला 'नृमेध' होगा, मनुष्यों से सम्पर्कवाला। सभी व्यसनों से ऊपर उठा हुआ होने के कारण 'आङ्गिरस' होगा। प्रभु इससे कहते हैं कि (उप स्वसरम आगहि) = फिर घर के समीप आ जा। तू ब्रह्मलोक से कितना दूर भटक गया। लौट, इसी जीवन में फिर घर के समीप पहुँच जाने के लिए प्रयत्न कर। इस उद्देश्य से (सः) = वह तू (इह) = इस मानवजीवन में (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनकर (स्तोमवाहसः) = स्तुति - समूहरूप वेद मन्त्रों को धारण कनेवाले ज्ञानियों से (श्रुधि) = ज्ञान का श्रवण कर। घर का नाम [स्व-सर] है - स्वतन्त्रतापूर्वक चलने का स्थान । इन्द्रियों के अधीन हुए और इनकें होकर न जाने हम कहाँ-कहाँ भटकते रह जाते हैं। ज्ञान को प्राप्त कर फिर हम स्वाधीन होते हैं और ‘स्व-सर'=स्वतन्त्रतापूर्वक विचरने के स्थानरूप अपने घर को प्राप्त होते हैं। प्रभु कहते हैं कि हे नृमेध! (त्वाम्)= तुझे (इदा) - आज और (ह्यः) = कल (भूर्णयः) = पालन करनेवाले - आसुर वृत्तियों के आक्रमणों से बचानेवाले (नर:) = तुझे आगे और आगे ले-चलनेवाले, स्वयं संसार में [न+रम्] न फँसे हुए ज्ञानी लोग (अपीप्यन्) = ज्ञान-जल का पान कराएँ। (वज्रिन्) = तू भी वज्रवाला बन। [वज् गतौ] निरन्तर गतिशीलता ही तेरा वह वज्र हो जोकि तुझे सब अशुभों को संहार करने में समर्थ करे। ‘आलस्य के अभाव' रूप वज्रवाला तू हो । इस प्रकार आलस्य को छोड़कर, ज्ञान से चमकता हुआ तू पूर्ण स्वतन्त्र हो और अपने घर में पहुँच।
मन्त्र में प्रसङ्गवश पढ़नेवालों के लिए दो बातें कही गईं हैं- १. (इन्द्र) = वह इन्द्रियों का अधिष्ठाता बने, २. (वज्रिन्) = वह गतिशीलतारूप वज्रवाला हो – निरालस हो । पढ़ानेवालों में निम्न गुण हों – १. (नरः) = वे विद्यार्थियों को सदा आगे और आगे ले चलें। (न-रम्) = अनासक्त हों, किसी भी विषय में न फँसे हों। २. (भूर्जय:) = विद्यार्थियों का पालन करनेवाले हों, उन्हें विषयासक्ति से बचाने का सदा ध्यान करें। ३. (स्तोमवाहसः) = स्तुतिसमूह को धारण करनेवाले हों। वेदमन्त्र ‘स्तोम' हैं, उनके वे धुरन्धर ज्ञाता हों, ज्ञान के समुद्र होते हुए प्रभु-प्रवण मानसी वृत्तिवाले हों।
भावार्थ -
हम कुशल आचार्यों के सम्पर्क में आकर ज्ञान का श्रवण करें और स्वार्थ से ऊपर उठ कुशलतापूर्वक इस संसार में विचरनेवाले ब्रह्मनिष्ठ बनें।
इस भाष्य को एडिट करें