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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 303
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - उषाः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣡त्यु꣢ अदर्श्याय꣣त्यू꣢३꣱च्छ꣡न्ती꣢ दुहि꣣ता꣢ दि꣣वः꣢ । अ꣡पो꣢ म꣣ही꣡ वृ꣢णुते꣣ च꣡क्षु꣢षा꣣ त꣢मो꣣ ज्यो꣡ति꣢ष्कृणोति सू꣣न꣡री꣢ ॥३०३॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । उ꣣ । अदर्शि । आयती꣢ । आ꣣ । यती꣢ । उ꣣च्छ꣡न्ती꣢ । दुहि꣣ता꣢ । दि꣣वः꣢ । अ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । मही꣢ । वृ꣣णुते । च꣡क्षु꣢꣯षा । त꣡मः꣢ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । कृ꣣णोति । सून꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ ॥३०३॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रत्यु अदर्श्यायत्यू३च्छन्ती दुहिता दिवः । अपो मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी ॥३०३॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रति । उ । अदर्शि । आयती । आ । यती । उच्छन्ती । दुहिता । दिवः । अप । उ । मही । वृणुते । चक्षुषा । तमः । ज्योतिः । कृणोति । सूनरी । सु । नरी ॥३०३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 303
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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पदार्थ -

(उ)=निश्चय से (प्रति आयती)= प्रत्येक व्यक्ति की ओर आती हुई यह उषा (अदर्शि) = देखी जाती है। (आयती) = निरन्तर गति करती हुई यह उषा यही कहती है कि मैं जैसे [उष दाहे] अन्धकार को जलाकर उषा बनी हूँ, उसी प्रकार तुम भी गतीशील बनोगे तो अन्धकार को समाप्त करनेवाले बनोगे।

(उच्छन्ती) = [अच्छी विवासे] यह उषा अन्धकार को विवासित कर देती है - देश निकाला दे देती है। उषा से प्रेरणा लेनेवाला व्यक्ति भी अपने अन्धकार को दूर करने के लिए सतत प्रयत्न करता है। यह उषा (दिवः) = प्रकाश की (दुहिता) = पूरण करनेवाली होती है। मनुष्य को भी अपने अज्ञानान्धकार को दूर करके अपने मस्तिष्क को ज्ञान से परिपूर्ण करना है। एवं, उषा का उपदेश व्यक्ति को तीन शब्दों में दिया गया है । १. गतिशील बन, २. अन्धकार को दूर कर, ३. ज्ञान को अपने अन्दर भर।

(मही)=महनीय–पूजनीय यह उषा (चक्षुषा) = प्रकाश से (तमः) = अन्धकार को (उ) = निश्चय से (अपवृणुते) = दूर करती है। साधक को भी मानो यह प्रेरणा देती है कि तू इस उषाकाल में प्रभु की पूजा करनेवाला बन और स्वयं ज्ञानी बनकर औरों के अन्धकार को दूर कर। यह (सूनरी) = उत्तम ढङ्ग से हमें उत्तमता की ओर ले - चलनेवाली उषा (ज्योतिः) = प्रकाश (कृणोति) = कर देती है। हमें भी उपदेश देती है कि तुम्हें भी बड़े उत्तम प्रकार से माधुर्य के साथ ज्ञान-प्रसाररूप कार्य करना है। एवं, उषा का सामाजिक उपदेश यह है कि मनुष्य प्रभु का उपासक बनकर अज्ञानान्धकार को दूर करने के लिए यत्न करे और इस ज्ञान-प्रसार रूप कार्य को अत्यन्त मधुरता से करे।

इस उल्लिखित उषा के उपदेश को 'वसिष्ट' ही क्रियान्वित कर सकता है। वश में करनेवालों में श्रेष्ठ अर्थात् जितेन्द्रिय ही इस मार्ग का आक्रमण करता है और यह जितेन्द्रियता इसे ‘मैत्रावरुणि’ बनने से प्राप्त होती है। मैत्रावरुणि-प्राणापानों की साधना करनेवला।

भावार्थ -

 मैं उषा का योग्यतम शिष्य बनूँ।

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