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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 387
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ए꣢तो꣣ न्वि꣢न्द्र꣣ꣳ स्त꣡वा꣢म꣣ स꣡खा꣢यः꣣ स्तो꣢म्यं꣣ न꣡र꣢म् । कृ꣣ष्टी꣡र्यो विश्वा꣢꣯ अ꣣भ्य꣢꣫स्त्येक꣣ इ꣢त् ॥३८७॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । इ꣣त । उ । नु꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स्त꣡वा꣢꣯म । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । स्तो꣡म्य꣢꣯म् । न꣡र꣢꣯म् । कृ꣣ष्टीः꣢ । यः । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣣भ्य꣡स्ति꣢ । अ꣣भि । अ꣡स्ति꣢꣯ । ए꣡कः꣢꣯ । इत् ॥३८७॥


स्वर रहित मन्त्र

एतो न्विन्द्रꣳ स्तवाम सखायः स्तोम्यं नरम् । कृष्टीर्यो विश्वा अभ्यस्त्येक इत् ॥३८७॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । इत । उ । नु । इन्द्रम् । स्तवाम । सखायः । स । खायः । स्तोम्यम् । नरम् । कृष्टीः । यः । विश्वाः । अभ्यस्ति । अभि । अस्ति । एकः । इत् ॥३८७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 387
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
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पदार्थ -

सोम का शरीर सेचन आवश्यक है। उसके लिए 'जितेन्द्रिय होना' [इन्द्र ३८४] और अध्वर्यु=अहिंसक बने रहना [३८५] उत्तेजित न होना रूप उपायों का निर्देश हो चुका है। परन्तु सर्वमहान् साधन तो 'प्रभु स्तवन' है, उसी का प्रस्तुत मन्त्र में उल्लेख है—

(एत उ)= निश्चय से आओ। (तु) = अब (इन्द्रम्) = उस प्रभु का (स्तदाम) = स्तवन करें। (सखायः) = हम सब समानरूप से प्रभु का ध्यान करनेवाले सखा हैं। सच्चा सखित्व तो यही है। वह प्रभु (स्तोभ्यम्) = स्तोमों के स्तूतिसमूहों के योग्य हैं। प्रभु की ही मनुष्य को स्तुति करनी चाहिए । प्रभु नरम्=हमें सदा आगे और आगे ही प्राप्त करानेवाले हैं। प्रभु की स्तुति हमारी लक्ष्य दृष्टि को ऊँचा बनाती है और हम उसी अनुपात में उन्नत होते चलते हैं।

(यः) =जो प्रभु एक हैं परन्तु (एकः इत्) = वे अकेले ही (विश्वाः कृष्टीः) = सब उद्योगों में लगे मनुष्यों को (अभ्यस्ति) = दबा लेते हैं। सारा संसार मेरे विरोध में हो, पर प्रभु मेरे साथ हैं तो मेरा विजय निश्चित है। और इसके विपरीत सारा संसार साथ है और मैं प्रभु से दूर होऊँ तो मेरा पराभव भी उतना ही निश्चित है। इसीलिए आत्मा के लिए सारी पृथिवी के त्याग का उपदेश है। जो ऐसा कर सके वे महापुरुष हो गये। इसलिए चाहिए यही कि हम स्वर्ग के राज्य के लिए इस पृथिवी के राज्य को छोड़ने के लिए तैयार हो जाएँ। जिस दिन हम यह कर सके, उस दिन सोम के विनष्ट न होने से हम सचमुच आगे बढ़ेंगे। 

भावार्थ -

जितेन्द्रियता, अनुत्तेजना व प्रभु-स्तवन इन तीन सोमपान के साधनों को क्रिया में लाकर हम आगे बढ़नेवाले नर हों ।

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