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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 590
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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त्व꣡या꣢ व꣣यं꣡ पव꣢꣯मानेन सोम꣣ भ꣡रे꣢ कृ꣣तं꣢꣯ वि꣢꣯ चिनुयाम꣣ श꣡श्व꣢त् । त꣡न्नो꣢ मि꣣त्रो꣡ वरु꣢णो मामहन्ता꣣म꣡दि꣢तिः꣣ सि꣡न्धुः꣢ पृ꣣थि꣢वी उ꣣त꣢ द्यौः ॥५९०॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣡या꣢꣯ । व꣣य꣢म् । प꣡व꣢꣯मानेन । सो꣣म । भ꣡रे꣢꣯ । कृ꣣त꣢म् । वि । चि꣣नुयाम । श꣡श्व꣢꣯त् । तत् । नः꣣ । मित्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । व꣡रु꣢꣯णः । मा꣣महन्ताम् । अ꣡दि꣢꣯तिः । अ । दि꣣तिः । सि꣡न्धुः꣢꣯ । पृ꣣थिवी꣢ । उ꣣त꣢ । द्यौः ॥५९०॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वया वयं पवमानेन सोम भरे कृतं वि चिनुयाम शश्वत् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥५९०॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वया । वयम् । पवमानेन । सोम । भरे । कृतम् । वि । चिनुयाम । शश्वत् । तत् । नः । मित्रः । मि । त्रः । वरुणः । मामहन्ताम् । अदितिः । अ । दितिः । सिन्धुः । पृथिवी । उत । द्यौः ॥५९०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 590
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

‘सब प्रकार के बन्धनों को तोड़कर सूर्य के व्रत में चलता हुआ मनुष्य विजयी न हो' यह कैसे हो सकता है? अतः गत मन्त्र का ‘शुन:शेप:' यहाँ 'कुत्स' [कुथ हिंसायाम्] शत्रुओं का संहार करनेवाला हो जाता है। 'सूर्य के व्रत में चलता हुआ' यह सूर्य की भाँति ही चमकने लगता है और अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला 'आङ्गिरस' बनता है। यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि

हे (सोम) = [ स उमा ] - ज्ञान के भण्डार प्रभो! (पवमानेन) = अपने ज्ञान से पवित्र करनेवाले (त्वया) = आपसे मिलकर (वयम्) = कर्म तन्तु का विस्तार करनेवाले (भरे) = काम-क्रोधादि के साथ निरन्तर चल रहे अध्यात्म संग्राम में [भृ भर्त्सने] (शश्वत्) = सदा (कृतम्) = सफलता को (विचिनुयाम) = विशेषरूप से संचित करनेवाले हों। प्रभु के आश्रय के बिना इस संग्राम में विजय पाना सम्भव नहीं। प्रभु अपने ज्ञान से मुझे पवित्र करते हैं और उत्तरोत्तर पवित्र होते चलना ही इस संग्राम की विजय है। ‘विजय मुझे प्रभु ही प्राप्त कराएँगे' इसमें सन्देह नहीं । प्रभु से प्राप्त कराई जानेवाली यह विजय बड़ी शानदार होगी यदि हम भी निम्न प्रकार से प्रयत्नशील होंगे। (नः तत्) = हमारी इस विजय को (मामहन्ताम्) = अत्यन्त गौरवपूर्ण बना डालें। कौन

१. (मित्रः वरुणः) = प्राण ओर अपान अर्थात् हमारा पहला कर्त्तव्य यह है कि हम प्राणापान की साधना करें। इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर आक्रमण करनेवाले अन्तः शत्रुओं को दग्ध करने का मूलसाधन प्राणायाम ही है। इससे इन्द्रियों के दोष उसी प्रकार दग्ध हो जाते हैं, जैसे तपाये हुए धातुओं के मल।

२. (अदितिः सिन्धुः) = अहिंसा की वृत्ति [दो अवखण्डने] और शक्ति का सागर । यह अदिति=अहिंसा सिन्धु- शक्ति के समुद्र के साथ है। निर्बलता के साथ अहिंसा का निवास नहीं। ‘सिन्धु' जलों का वाचक है। अध्यात्म में जल शक्ति के रूप में है [आप: रेतो भूत्वा० ] । ('शक्तौ क्षमा') = शक्ति के साथ क्षमा हमारे जीवनों को अलंकृत करती है और हमें विजयी बनाती है।

३. (पृथिवी उत द्यौः) = पृथिवी और द्युलोक - शरीर और मस्तिष्क | ‘पृथिवी च दृढा' = दृढ शरीर ही शरीर है। वायु के नाममात्र झोंके से हिल जानेवाला-रोग-पीड़ित हो जानेवाला शरीर भी क्या शरीर है? ' द्यौः उग्रा ' हमारा मस्तिष्क विज्ञान के नक्षत्रों व ब्रह्मज्ञान के सूर्य से दीप्त हो। ‘हम शरीर को पृथिवी तुल्य दृढ़ और मस्तिष्क को धुलोक के समान तेजस्वी बनाएँ' यही हमारा तृतीय प्रयत्न होगा और हम प्रभु कृपा से शत्रुओं को तीर्ण कर जाएँगे, 'कुत्स' बन पाएँगे। 

भावार्थ -

प्रभु-कृपा से प्राणायाम, पवित्रता व 'प्रज्ञान' में लगे हुए हम शत्रुओं को जीतनेवाले बनें।

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