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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 71
ऋषिः - त्रिशिरास्त्वाष्ट्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣢ के꣣तु꣡ना꣢ बृह꣣ता꣡ या꣢त्य꣣ग्नि꣡रा रोद꣢꣯सी वृष꣣भो꣡ रो꣢रवीति । दि꣣व꣢श्चि꣣द꣡न्ता꣢दुप꣣मा꣡मुदा꣢꣯नड꣣पा꣢मु꣣पस्थे꣢ महि꣣षो꣡ व꣢वर्ध ॥७१॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । के꣣तु꣡ना꣢ । बृ꣣हता꣢ । या꣣ति । अग्निः꣢ । आ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । वृ꣣षभः꣢ । रो꣣रवीति । दिवः꣢ । चि꣣त् । अ꣡न्ता꣢꣯त् । उ꣣पमा꣢म् । उ꣣प । मा꣢म् । उत् । आ꣣नट् । अपा꣢म् । उ꣣प꣡स्थे꣢ । उ꣣प꣡ । स्थे꣣ । महिषः꣢ । व꣣वर्ध ॥७१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र केतुना बृहता यात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति । दिवश्चिदन्तादुपमामुदानडपामुपस्थे महिषो ववर्ध ॥७१॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । केतुना । बृहता । याति । अग्निः । आ । रोदसीइति । वृषभः । रोरवीति । दिवः । चित् । अन्तात् । उपमाम् । उप । माम् । उत् । आनट् । अपाम् । उपस्थे । उप । स्थे । महिषः । ववर्ध ॥७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 71
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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विषय - चार बातें
पदार्थ -
(अग्निः) =अपने जीवन को प्रगतिशील बनाकर ‘अग्नि' नाम से पुकारा जानेवाला व्यक्ति (बृहता)=सब प्रकार की वृद्धि के कारणभूत (केतुना)=नीरोगता के साथ (प्रयाति)=उत्तम प्रकार से जीवन-यात्रा में चलता है। स्वास्थ्य के बिना धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष किसी भी पुरुषार्थ की प्राप्ति सम्भव नहीं, अतः यह अग्नि अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान करता है। यह पथ्य का ही सेवन करता है, इसके जीवन में स्वाद को प्रधानता नहीं मिलती।
२. यह अग्नि स्वस्थ बनकर (रोदसी) = द्युलोक से पृथिवीलोक तक सभी के लिए (वृषभ:) = सुखों की वर्षा करनेवाला होकर (आरोरवीति) = खूब उपदेश देता है।
३. यह अग्नि लोगों को ज्ञान देने के लिए स्वयं (दिवः) = ज्ञान के (अन्तात्) = परले सिरों को तथा (उपमाम् चित्)= समीप के सिरों को (उदानट्) = व्याप्त करता है। सरस्वती ज्ञान की देवता जब एक नदी के रूप में चित्रित की जाती है तो सृष्टि-विद्या उसका उरला किनारा होता है और ब्रह्मविद्या परला । यह अग्नि इन दोनों किनारों को व्याप्त करने का प्रयत्न करता है। वह यह समझता है कि अलग-अलग ये दोनों विद्याएँ अन्धकार में ले जानेवाली हैं। इनका मेल ही निःश्रेयस को सिद्ध कर सकता है।
४. इस प्रकार विज्ञान व ब्रह्मज्ञान को अपनाकर अग्नि (अपाम्) = कर्मों की (उपस्थे) = गोद में (ववर्ध )= आगे और आगे बढ़ता है। ज्ञानी बनकर यह सदा क्रियाशील होता है । यह लोकहित के लिए सदा कर्मों में लगा रहता है, अतएव (महिष:) = लोकों का पूजनीय होता है। इस अग्नि का लक्ष्य उत्तम ज्ञान के द्वारा त्रिविध दुःखों को शीर्ण [नष्ट] करना होता है और इसी से यह इस मन्त्र का ऋषि ‘त्रिशिराः' कहलाता है।
भावार्थ -
‘अग्नि' = प्रगतिशील जीव स्वस्थ, ज्ञानी व क्रियाशील होता है ।
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