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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 70
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
7
इ꣣न्धे꣢꣫ राजा꣣ स꣢म꣣र्यो꣡ नमो꣢꣯भि꣣र्य꣢स्य꣣ प्र꣡ती꣢क꣣मा꣡हु꣢तं घृ꣣ते꣡न꣢ । न꣡रो꣢ ह꣣व्ये꣡भि꣢रीडते स꣣बा꣢ध꣡ आ꣡ग्निरग्र꣢꣯मु꣣ष꣡सा꣢मशोचि ॥७०॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣न्धे꣢ । रा꣡जा꣢꣯ । सम् । अ꣣र्यः꣢ । न꣡मो꣢꣯भिः । य꣡स्य꣢꣯ । प्र꣡ती꣢꣯कम् । आ꣡हु꣢꣯तम् । आ । हु꣣तम् । घृते꣡न꣢ । न꣡रः꣢꣯ । ह꣣व्ये꣡भिः꣢ । ई꣣डते । स꣣बा꣡धः꣢ । स꣣ । बा꣡धः꣢꣯ । आ । अ꣣ग्निः꣢ । अ꣡ग्र꣢꣯म् । उ꣣ष꣡सा꣢म् । अ꣣शोचि ॥७०॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्धे राजा समर्यो नमोभिर्यस्य प्रतीकमाहुतं घृतेन । नरो हव्येभिरीडते सबाध आग्निरग्रमुषसामशोचि ॥७०॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्धे । राजा । सम् । अर्यः । नमोभिः । यस्य । प्रतीकम् । आहुतम् । आ । हुतम् । घृतेन । नरः । हव्येभिः । ईडते । सबाधः । स । बाधः । आ । अग्निः । अग्रम् । उषसाम् । अशोचि ॥७०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 70
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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विषय - मुमुक्षु के लक्षण
पदार्थ -
१. (अग्निः) = अपने को उन्नति-पथ पर ले चलनेवाला यह मुमुक्षु (राजा) = बड़ा नियमित जीवनवाला होता है। इसकी सभी क्रियाएँ - खाना, पीना, सोना, जागना-बड़े नियम से चलती हैं, सूर्य-चन्द्र की गति के समान समय पर होती हैं । २. (अर्यः) = यह स्वामी होता है । किनका? अपनी इन्द्रियों का। इन्द्रियों के वशीभूत होकर यह कभी कोई अकार्य नहीं करता। इन्द्रियाँ उसकी उन्नति का साधन होती हुई उसकी दास होती हैं। प्राकृतिक जीवन में उसकी क्रियाएँ नियमित होती हैं, आध्यात्मिक जीवन में संयत ।
इतना उत्कृष्ट जीवनवाला होता हुआ भी वह नम्र होता है और वस्तुतः ३. (नमोभिः) = इन नम्रताओं से (समिन्धे) = और भी अधिक चमकता है। ४. यह मुमुक्षु वह है (यस्य) = जिसका प्(रतीकम्)=अङ्ग-प्रत्यङ्ग (घृतेन) = दीप्ति से (आहुतम्) = आहुत होता है। इसका अङ्ग-प्रत्यङ्ग एक विशेष प्रकार की चमकवाला होता है। उसके मन की शान्ति चेहरे पर ज्योति के रूप में प्रकट होती है।
५. अपने जीवन को इस प्रकार बनाकर यह मुमुक्षु (नरः) = औरों को आगे ले चलनेवाला बनता है और इस लोकहित की प्रवृत्ति में ६. (हव्येभिः) = तन, मन, धन की आहुतियों से यह प्रभु की (ईडते) = उपासना करता है। इस कार्य में यह ७. (सबाध:) = बलयुक्त होता है। इस लोकहित के कार्य को यह ढिलमिलपने से न करके शक्तिशाली बनकर करता है। ८. यह अग्नि (आ-उषसाम् अग्रे) = सदा उषाकाल के अग्रभाग में बहुत तड़के (अशोचि) = अपनी गत दिन की कमियों पर पश्चात्ताप करता है और आगे से उन्हें न दुहराने के दृढ़ निश्चय से अपने को पवित्र व दीप्त बनाता है।
इस प्रकार सब इन्द्रियों को वश में करने के कारण यह मुमुक्षु इस मन्त्र का ऋषि ‘वसिष्ठ' बनता है।
भावार्थ -
मुमुक्षु को नियमित व संयत जीवनवाला होकर लोकहित के द्वारा प्रभु की उपासना में निरत रहना चाहिए।
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