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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 736
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
तं꣢ ते꣣ य꣢वं꣣ य꣢था꣣ गो꣡भिः꣢ स्वा꣣दु꣡म꣢कर्म श्री꣣ण꣡न्तः꣢ । इ꣡न्द्र꣢ त्वा꣣स्मिं꣡त्स꣢ध꣣मा꣡दे꣢ ॥७३६॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ते꣣ । य꣡व꣢꣯म् । य꣡था꣢꣯ । गो꣡भिः꣢꣯ । स्वा꣣दु꣢म् । अ꣣कर्म । श्रीण꣡न्तः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वा꣣ । अस्मि꣣न् । स꣣धमा꣡दे꣢ । स꣣ध । मा꣡दे꣢꣯ ॥७३६॥
स्वर रहित मन्त्र
तं ते यवं यथा गोभिः स्वादुमकर्म श्रीणन्तः । इन्द्र त्वास्मिंत्सधमादे ॥७३६॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । ते । यवम् । यथा । गोभिः । स्वादुम् । अकर्म । श्रीणन्तः । इन्द्र । त्वा । अस्मिन् । सधमादे । सध । मादे ॥७३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 736
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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विषय - कर्म को मधुर बनाना
पदार्थ -
इस मन्त्र में कर्म को 'यव' कहा गया है । 'यु' धातु के अर्थ मिश्रण व अमिश्रण हैं। ‘भद्र से सम्पृक्त होना और अभद्र से विपृक्त होना' यही कर्म का शुद्धस्वरूप है । प्रियमेध संसार में उत्तम कर्मों को करता हुआ उन कर्मों का कभी गर्व नहीं करता । इन सब कर्मों को वह प्रभु का ही समझता है और कहता है कि- (तं ते यवम्) = आपके इन कर्मों को (यथा गोभिः) = उस-उस कर्म के अनुकूल ज्ञानों से (स्वादुम्) = मधुर (अकर्म) = बनाते हैं। ज्ञानरहित कर्म कुछ अपवित्र व माधुर्यशून्य हो जाता है। ज्ञान से कर्म में माधुर्य आता है और प्रभु-उपासना से वह माधुर्य और अधिक बढ़ जाता है, अत: मन्त्र में कहते हैं कि (इन्द्र) = सर्वैश्वर्यवाले प्रभो ! (त्वा) = आपको (अस्मिन्) = इस (सधमादे) = यज्ञ में (श्रीणन्तः) = [श्रिञ् सेवायाम् ] सेवन करते हुए हम अपने कर्मों को मधुर बनाते हैं । यहाँ यज्ञ के लिए 'सधमाद' शब्द आया है। सबको एकत्र होकर [सध] यहाँ आनन्द लेना होता है [माद] । यज्ञवेदि (‘सध-स्थ') = सबके मिलकर बैठने का स्थान है। कर्ममात्र यज्ञ का रूप धारण करेगा तो उन यज्ञों में प्रभु का सेवन करते हुए हम अपने कर्मों को शक्तिशाली बना रहे होंगे और अभिमानशून्यता से कर्म सुन्दर प्रतीत होंगे। ज्ञान-कर्मों में से अहन्ता को भी नष्ट करता है । यह ज्ञानी कर्मों को अपना मानता ही नहीं, ते= ये तो तेरे ही हैं, इनमें मेरा क्या है ? ऐसी उसकी भावना होती है ?
भावार्थ -
हम ज्ञान व श्रद्धा से अपने कर्मों को मधुर बनाएँ ।
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