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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 886
ऋषिः - अकृष्टा माषाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
4
प्र꣢ त꣣ आ꣡श्वि꣢नीः पवमान धे꣣न꣡वो꣢ दि꣣व्या꣡ अ꣢सृग्र꣣न्प꣡य꣢सा꣣ ध꣡री꣢मणि । प्रा꣡न्तरि꣢꣯क्षा꣣त्स्था꣡वि꣢रीस्ते असृक्षत꣣ ये꣡ त्वा꣢ मृ꣣ज꣡न्त्यृ꣢षिषाण वे꣣ध꣡सः꣢ ॥८८६॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । ते꣣ । आ꣡श्वि꣢꣯नीः । प꣣वमान । धेन꣡वः꣢ । दि꣣व्याः꣢ । अ꣣सृग्रन् । प꣡य꣢꣯सा । धरी꣡म꣢꣯णि । प्र । अ꣣न्त꣡रि꣢क्षात् । स्था꣡वि꣢꣯रीः । स्था । वि꣣रीः । ते । असृक्षत । ये꣢ । त्वा꣣ । मृज꣡न्ति꣢ । ऋ꣣षिषाण । ऋषि । सान । वेध꣡सः꣢ ॥८८६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र त आश्विनीः पवमान धेनवो दिव्या असृग्रन्पयसा धरीमणि । प्रान्तरिक्षात्स्थाविरीस्ते असृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधसः ॥८८६॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । ते । आश्विनीः । पवमान । धेनवः । दिव्याः । असृग्रन् । पयसा । धरीमणि । प्र । अन्तरिक्षात् । स्थाविरीः । स्था । विरीः । ते । असृक्षत । ये । त्वा । मृजन्ति । ऋषिषाण । ऋषि । सान । वेधसः ॥८८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 886
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - संयमी व उपासक
पदार्थ -
हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपकी १. (आश्विनी:) = व्यापक, सब सत्यविद्याओं की प्रापक, २. (दिव्याः) = अलौकिक – दिव्य-गुणों को जन्म देनेवाली, प्रकाशमय, ३. (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध का पान करानेवाली वेदवाणीरूप धेनुएँ (पयसा) = आप्यायन के हेतु से (धरीमणि) = सोम को धारण करनेवाले पुरुष में (प्र असृग्रन्) = उत्कृष्टरूप में सृष्ट होती हैं, अर्थात् वे वेद, जिसमें सत्यविद्याओं के बीज निहित हैं, जो दिव्य - प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं, सोम की रक्षा करनेवाले पुरुषों में प्रकाशित होते हैं ।
हे (ऋषिषाण) = तत्त्वद्रष्टाओं से सेवित प्रभो ! (ते) = आपकी ये (स्थाविरी:) = स्थिर, अविनश्वर वेदवाणियाँ (अन्तरिक्षात्) = उन लोगों के हृदयान्तरिक्ष में (प्र असृक्षत) = प्रकृष्टतया प्रकट होती है, ये (वेधसः) = जो ज्ञानी लोग (त्वा मृजन्ति) = आपका गवेषण करते हैं, अर्थात् जो तत्त्वद्रष्टा लोग प्रभु की उपासना में लीन होते हैं— उसके गवेषण में तत्पर होते हैं, ये वेदवाणियाँ जो स्थिर व अविनश्वर हैं, उनके हृदयों में प्रकाशित होती हैं ।
प्रस्तुत मन्त्र में ऋषि 'अकृष्टा-माषा: ' हैं, जो खान-पान की वस्तुओं की छीना-झपटी में ही नहीं उलझे रहते। ऐसे व्यक्ति ही संयमी [धरीमन्] तथा प्रभु के उपासक [ऋषिषाण, त्वा मृजन्ति ] बनकर वेद के तत्त्वों को देख पाते हैं ।
भावार्थ -
हम केवल खाने-पीने से ऊपर उठें, संयमी बने, प्रभु-प्रार्थी हों, जिससे वेदतत्त्व को देखने में समर्थ हो सकें ।
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