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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 887
ऋषिः - अकृष्टा माषाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
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उ꣣भय꣢तः꣣ प꣡व꣢मानस्य र꣣श्म꣡यो꣢ ध्रु꣣व꣡स्य꣢ स꣣तः꣡ परि꣢꣯ यन्ति के꣣त꣡वः꣢ । य꣡दी꣢ प꣣वि꣢त्रे꣣ अ꣡धि꣢ मृ꣣ज्य꣢ते꣣ ह꣡रिः꣢ स꣢त्ता꣣ नि꣡ योनौ꣢꣯ क꣣ल꣡शे꣢षु सीदति ॥८८७॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣣भय꣡तः꣢ । प꣡व꣢꣯मानस्य । र꣣श्म꣡यः꣢ । ध्रु꣣व꣡स्य꣢ । स꣣तः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । य꣣न्ति । केत꣡वः꣢ । य꣡दि꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । मृ꣣ज्य꣡ते꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । स꣡त्ता꣢꣯ । नि । यो꣡नौ꣢꣯ । क꣣ल꣡शे꣢षु । सी꣣दति ॥८८७॥


स्वर रहित मन्त्र

उभयतः पवमानस्य रश्मयो ध्रुवस्य सतः परि यन्ति केतवः । यदी पवित्रे अधि मृज्यते हरिः सत्ता नि योनौ कलशेषु सीदति ॥८८७॥


स्वर रहित पद पाठ

उभयतः । पवमानस्य । रश्मयः । ध्रुवस्य । सतः । परि । यन्ति । केतवः । यदि । पवित्रे । अधि । मृज्यते । हरिः । सत्ता । नि । योनौ । कलशेषु । सीदति ॥८८७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 887
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -

१. (पवमानस्य) = अपने जीवन को पवित्र बनानेवाले के (उभयतः) = दोनों ओर (रश्मयः) = लगामें [प्रग्रह] होती हैं। वह प्राकृतिक जीवन में 'ऋत' की लगाम पहनकर चलता है— प्रत्येक कार्य को सूर्य और चन्द्रमा की भाँति ठीक समय पर करता है और आध्यात्म जीवन में 'सत्य' रूप प्रग्रहवाला होता है । ऋत और सत्य की लगामों के कारण इसका जीवन-रथ धर्म के मार्ग से किञ्चित् भी विचलित नहीं होता। २. (ध्रुवस्य सतः) = इस प्रकार धर्म के मार्ग पर ध्रुव = स्थिर होते हुए इसके जीवन में (केतवः) = ज्ञान के प्रकाश (परियन्ति) = सर्वतः प्राप्त होते हैं । जब मनुष्य संयत जीवन के द्वारा धर्म के मार्ग पर ध्रुवता से चलता है, तब इसके जीवन में चारों ओर प्रकाश - ही - प्रकाश हो जाता है ।

३. (यत् ई) = जब निश्चय से (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (हरिः) = सब वासनाओं का हरण करनेवाला प्रभु (अधिमृज्यते) = शोधित किया जाता है, अर्थात् जब पवित्र हृदय में प्रभु का चिन्तन होता है तब ४. (सत्ता) = सब वासनाओं का विशरण [षद् - विशरण – विनाश] करनेवाला प्रभु (कलशेषु) = अपने को षोडश कलाओं का निवास स्थान बनानेवाले जीवों में (निषीदति) = निषण्ण होता है और (सत्ता) = वासनाओं का विनाश करके [विशरण] प्रभु के समीप बैठनेवाला [सद्-सीदति- बैठता है] वह पवमान जीव (योनौ) = सारे ब्रह्माण्ड के मूल उत्पत्तिस्थान प्रभु में (निषीदति) = निश्चय से स्थित होता है। चौथे चरण में श्लेष से यह कहा गया है कि प्रभु जीव में स्थित होता है और जीव प्रभु में स्थित होता है, परन्तु कब ? जब १. जीव 'ऋत व सत्य' की लगामवाला होता है, २. धर्म के मार्ग पर स्थिरता के कारण उसका जीवन प्रकाशमय होता है, ३. जब हृदय में प्रभु का अन्वेषण करता है और ४. वासनाओं का विनाश करनेवाला बनता है।

भावार्थ -

जीवन की लगाम को कसकर हम धर्म के मार्ग पर चलें | हृदयों में प्रभु - चिन्तन से वासनाओं को दूर रक्खें, हम प्रभु में हों, प्रभु हममें हों ।

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