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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 992
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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या꣢ वा꣣ꣳ स꣡न्ति꣢ पुरु꣣स्पृ꣡हो꣢ नि꣣यु꣡तो꣢ दा꣣शु꣡षे꣣ नरा । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ ता꣢भि꣣रा꣡ ग꣢तम् ॥९९२॥

स्वर सहित पद पाठ

याः । वा꣣म् । स꣡न्ति꣢꣯ । पु꣣रुस्पृ꣡हः꣢ । पु꣣रु । स्पृ꣡हः꣢꣯ । नि꣣यु꣡तः꣢ । नि꣣ । यु꣡तः꣢꣯ । दा꣣शु꣡षे꣢ । न꣣रा । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । ता꣡भिः꣢꣯ । आ । ग꣣तम् ॥९९२॥


स्वर रहित मन्त्र

या वाꣳ सन्ति पुरुस्पृहो नियुतो दाशुषे नरा । इन्द्राग्नी ताभिरा गतम् ॥९९२॥


स्वर रहित पद पाठ

याः । वाम् । सन्ति । पुरुस्पृहः । पुरु । स्पृहः । नियुतः । नि । युतः । दाशुषे । नरा । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । ताभिः । आ । गतम् ॥९९२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 992
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हे (इन्द्राग्नी) = प्राणापान-शक्तियो! (या) = जो (वाम्) = आपकी (पुरुस्पृहः) = अत्यन्त स्पृहणीय (नियुतः) = मिश्रण व अमिश्रण की शक्तियाँ सन्ति हैं, [प्राण के द्वारा शरीर के साथ बल का मिश्रण होता है और अपान द्वारा मस्तिष्क से अज्ञानान्धकार का निवारण होता है] । इन शक्तियों के द्वारा आप (नरा) = मनुष्यों को उन्नति-पथ पर ले-चलते हो । आप (ताभिः) = उन शक्तियों के साथ (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए, आपके प्रति अपना समर्पण करनेवाले व्यक्ति के लिए (आगतम्) = प्राप्त होओ । जो भी व्यक्ति प्राणसाधना करता है, उसे प्राणापान उत्तमता से जोड़ते हैं और न्यूनताओं से पृथक् करते हैं ।

भावार्थ -

प्राणापान की साधना हमें भद्र से जोड़े और अभद्र से पृथक् करे ।

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