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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 993
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
6
ता꣢भि꣣रा꣡ ग꣢च्छतं न꣣रो꣢पे꣣द꣡ꣳ सव꣢꣯नꣳ सु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ सो꣡म꣢पीतये ॥९९३॥
स्वर सहित पद पाठता꣡भिः꣢꣯ । आ । ग꣣च्छतम् । नरा । उ꣡प꣢꣯ । इ꣣द꣢म् । स꣡व꣢꣯नम् । सु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये ॥९९३॥
स्वर रहित मन्त्र
ताभिरा गच्छतं नरोपेदꣳ सवनꣳ सुतम् । इन्द्राग्नी सोमपीतये ॥९९३॥
स्वर रहित पद पाठ
ताभिः । आ । गच्छतम् । नरा । उप । इदम् । सवनम् । सुतम् । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । सोमपीतये । सोम । पीतये ॥९९३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 993
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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विषय - यज्ञमय जीवन व सोमपान
पदार्थ -
१. हे (नरा) = हमें उन्नति - पथ पर आगे और आगे ले-चलनेवाले (इन्द्राग्नी) = प्राणापानो ! (ताभिः) = अपनी अत्यन्त स्पृहणीय शक्तियों के साथ–भद्र से संयोग व अभद्र से वियोगकारिणी शक्तियों के साथ (इदम्) = इस (सुतम्) = प्रजाओं के साथ ही उत्पन्न किये गये (सवनम्) = यज्ञ के (उपागच्छतम्) = समीप आइए, अर्थात् प्राणापान की साधना करते हुए हम यज्ञमय जीवनवाले हों। २. हे प्राणापानो! आप (सोमपीतये) = सोम का पान करने के लिए होओ। आपकी साधना के द्वारा मैं सोम को शरीर में ही व्याप्त कर सकूँ ।
भावार्थ -
प्राणापान की साधना के दो लाभ हैं – १. जीवन यज्ञमय बनता है, २. सोम शरीर में ही खप जाता है ।
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