अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 11
सूक्त - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
घृ॒तं प्रो॒क्षन्ती॑ सु॒भगा॑ दे॒वी दे॒वान्ग॑मिष्यति। प॒क्तार॑मघ्न्ये॒ मा हिं॑सी॒र्दिवं॒ प्रेहि॑ शतौदने ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तम् । प्र॒ऽउ॒क्षन्ती॑ । सु॒ऽभगा॑ । दे॒वी । दे॒वान् । ग॒मि॒ष्य॒ति॒ । प॒क्तार॑म् । अ॒घ्न्ये॒ । मा । हिं॒सी॒: । दिव॑म् । प्र । इ॒हि॒ । श॒त॒ऽओ॒द॒ने॒ ॥९.११॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतं प्रोक्षन्ती सुभगा देवी देवान्गमिष्यति। पक्तारमघ्न्ये मा हिंसीर्दिवं प्रेहि शतौदने ॥
स्वर रहित पद पाठघृतम् । प्रऽउक्षन्ती । सुऽभगा । देवी । देवान् । गमिष्यति । पक्तारम् । अघ्न्ये । मा । हिंसी: । दिवम् । प्र । इहि । शतऽओदने ॥९.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 11
विषय - घृतं प्रोक्षन्ती
पदार्थ -
१. (घृतं प्रोक्षन्ती) = शतवर्षपर्यन्त हमारे जीवनों को आनन्दसिक्त करनेवाली यह वेदवाणी हमारे जीवनों में [घ क्षरणदीप्त्योः ] दीप्ति का सेचन करती है, (सुभगा) = यह उत्तम ऐश्वयों को प्राप्त करानेवाली (देवी) = प्रकाशमयी-काम-क्रोध को जीतने की कामनावाली वेदवाणी (देवान् गमिष्यति) = देववृत्ति के पुरुषों को प्राप्त होगी। काम-क्रोध को परास्त करनेवाले पुरुष ही इसे प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। २. हे (शतौदने) = आजीवन आनन्दित करनेवाली (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदवाणि! (पक्तारं मा हिंसी:) = तेरा परिपाक करनेवाले व्यक्तियों को मत हिंसित कर-तेरा पाक करनेवाले व्यक्ति हिंसित न हों [वेद एव हतो हन्ति]। यह वाणी अन्न्या है-हम इसका हनन न करेंगे तो यह भी हमें हिंसित होने से बचाएगी। हे शतौदने ! तू (दिवं प्रेहि) = प्रकाश व आनन्द [द्युति-मोद] को प्राप्त कर-तू आनन्द को प्राप्त करानेवाली हो।
भावार्थ -
वेदवाणी प्रकाशमयी है। यह हमारे जीवनों को ज्ञानसिक्त करती है, सौभाग्यसम्पन्न बनाती है। यह देववृत्ति के पुरुषों को प्राप्त होती है। जो भी अपने में इसका परिपाक करते हैं, उनका हिंसन न होने देती हुई यह उन्हें ज्योति व आनन्द प्राप्त कराती है-
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