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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्गर्भातिजगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    ई॒शां वो॑ वेद॒ राज्यं॒ त्रिष॑न्धे अरु॒णैः के॒तुभिः॑ स॒ह। ये अ॒न्तरि॑क्षे॒ ये दि॒वि पृ॑थि॒व्यां ये च॑ मान॒वाः। त्रिष॑न्धे॒स्ते चेत॑सि दु॒र्णामा॑न॒ उपा॑सताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒शाम् । व॒: । वे॒द॒ । राज्य॑म् । त्रिऽसं॑धे । अ॒रु॒णै: । के॒तुऽभि॑: । स॒ह । ये । अ॒न्तरि॑क्षे । ये । दि॒वि । पृ॒थि॒व्याम् । ये । च॒ । मा॒न॒वा: । त्रिऽसं॑धे: । ते । चेत॑सि । दु॒:ऽनामा॑न: । उप॑ । आ॒स॒ता॒म् ॥१२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईशां वो वेद राज्यं त्रिषन्धे अरुणैः केतुभिः सह। ये अन्तरिक्षे ये दिवि पृथिव्यां ये च मानवाः। त्रिषन्धेस्ते चेतसि दुर्णामान उपासताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईशाम् । व: । वेद । राज्यम् । त्रिऽसंधे । अरुणै: । केतुऽभि: । सह । ये । अन्तरिक्षे । ये । दिवि । पृथिव्याम् । ये । च । मानवा: । त्रिऽसंधे: । ते । चेतसि । दु:ऽनामान: । उप । आसताम् ॥१२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (व:) = तुम्हारा (राज्यम्) = राज्य (ईशां वेद) = शासनशक्ति को जानता है, अर्थात् राष्ट्र में सर्वत्र शासन की सुव्यवस्था है। हे (त्रिषन्धे) = जल, स्थल व वायु-सेना के साथ समर्थ राजन्! (अरुणै: केतुभिः सह) = विजय की सूचक अरुण वर्णवाली पताकाओं के साथ रहनेवाला जो तू है, उससे (त्रिषन्धः) = तुम त्रिषन्धि के (चेतसि) = चित्त में वे सब (दुर्गामान:) = [दुर् नम्] दुष्टता को झुकानेवालेराष्ट्र से दुष्टता को दूर करनेवाले (मानवा:) = विचारशील पुरुष (उपासताम्) = समीपता से रहनेवाले हों-(ये) = जो (दिवि) = द्युलोक में निवास करनेवाले हैं, अर्थात् जो ज्ञान में विचरण करते हुए सदा मस्तिष्करूप धुलोक में निवास करते हैं, (ये अन्तरिक्षे) = जो उपासना-प्रवृत्त लोग सदा हृदयान्तरिक्ष में निवास करते हैं, (ये च) = और जो सामान्य व्यवहार में प्रवृत्त लोग (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर हैं।

    भावार्थ -

    राष्ट्र में शासन सुव्यवस्थित हो। राजा की विजयसूचक पताकाएँ सदा फहराती रहें। राजा दुष्टता को दूर करनेवाले उन सब पुरुषों का ध्यान करे[ रक्षण करे] जोकि 'ज्ञान, उपासना व पार्थिव [संसारी] व्यवहार' में प्रवृत्त हैं।

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