अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 45
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - अतिजागतगर्भा जगती
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
पर्य॑स्य महि॒मा पृ॑थि॒वीं स॑मु॒द्रं ज्योति॑षा वि॒भ्राज॒न्परि॒ द्याम॒न्तरि॑क्षम्। सर्वं॑ सं॒पश्य॑न्त्सुवि॒दत्रो॒ यज॑त्र इ॒दं शृ॑णोतु॒ यद॒हं ब्रवी॑मि ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । पृ॒थि॒वीम् । स॒मु॒द्रम् । ज्योति॑षा । वि॒ऽभ्राज॑न् । परि॑ । द्याम् । अ॒न्तरि॑क्षम् । सर्व॑म् । स॒म्ऽपश्य॑न् । सु॒ऽवि॒दत्र॑: । यज॑त्र: । इ॒दम् । शृ॒णो॒तु॒ । यत् । अ॒हम् । ब्रवी॑मि ॥२.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्यस्य महिमा पृथिवीं समुद्रं ज्योतिषा विभ्राजन्परि द्यामन्तरिक्षम्। सर्वं संपश्यन्त्सुविदत्रो यजत्र इदं शृणोतु यदहं ब्रवीमि ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । अस्य । महिमा । पृथिवीम् । समुद्रम् । ज्योतिषा । विऽभ्राजन् । परि । द्याम् । अन्तरिक्षम् । सर्वम् । सम्ऽपश्यन् । सुऽविदत्र: । यजत्र: । इदम् । शृणोतु । यत् । अहम् । ब्रवीमि ॥२.४५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 45
विषय - पृथिवीं, समुद्र, द्या, अन्तरिक्षं [परिबभूव]
पदार्थ -
१. (अस्य) = उस प्रभु की (महिमा) = महिमा (पृथिवीम् समुद्र परि) [बभूव] = पृथिवी और समुद्र को व्याप्त कर रही है। (ज्योतिषः विभ्राजन्) = ज्योति से दीप्त होते हुए वे प्रभु (द्याम् अन्तरिक्षम्) = द्युलोक व अन्तरिक्षलोक को परि[बभूव]-व्याप्त किये हुए हैं। २. (सर्वं संपश्यन्) = सबको सम्यक् देखते हुए वे प्रभु (सुविदाः) = सब उत्तम वस्तुओं के प्रापण के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले हैं। (यज्ञत्र:) = वे प्रभु पूजनीय हैं, संगतिकरण-योग्य हैं और समर्पणीय हैं। (यत् अहं ब्रवीमि) = जो भी मैं प्रार्थना के रूप में प्रभु से कहता हूँ, प्रभु (इदं शृणोतु) = उसको सुनें। मेरी प्रार्थना न सुनने योग्य न हो। मैं अपने को प्रार्थना सुने जाने का पात्र बनाऊँ।
भावार्थ -
प्रभु की महिमा 'पृथिवी, समुद्र, झुलोक व अन्तरिक्षलोक' में सर्वत्र विद्यमान है। वे प्रभु हम सबका ध्यान करते हैं। मैं इस योग्य बनें कि वे 'सुविदत्र, यज्ञत्र' प्रभु मेरी प्रार्थना को सुनें।
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