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अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
वि॒शां च॒ वै ससब॑न्धूनां॒ चान्न॑स्य चा॒न्नाद्य॑स्य च प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒शाम् । च॒ । वै । स: । सऽब॑न्धूनाम् । च॒ । अन्न॑स्य । च॒ । अ॒न्न॒ऽअद्य॑स्य । च॒ । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
विशां च वै ससबन्धूनां चान्नस्य चान्नाद्यस्य च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठविशाम् । च । वै । स: । सऽबन्धूनाम् । च । अन्नस्य । च । अन्नऽअद्यस्य । च । प्रियम् । धाम । भवति । य: । एवम् । वेद ॥८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
विषय - राजन्य
पदार्थ -
१. (सः अरज्यत) = इस व्रात्य ने प्रजाओं का रञ्जन किया। तत: उस रञ्जन के कारण (राजन्य:) = राजन्य (अजायत) = हो गया। 'राजति' दीप्त जीवनवाला बना। (स:) = वह प्रजा का रजन करनेवाला व्रात्य (सबन्धून विश:) = बन्धुओंसहित प्रजाओं का तथा (अन्नं अन्नाद्यं अभि) = अन्न और अन्नाद्य का लक्ष्य करके (उदतिष्ठत) = उत्थानवाला हुआ। उसने बन्धुओं व प्रजाओं की स्थिति को उन्नत करने का प्रयत्न किया कि अन्न व अन्नाद्य की कमी न हो। कोई भी भूखा न मरे। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार समझ लेता है कि उसने बन्धुओं व प्रजाओं को उन्नत करना है और अन्न व अन्नाद्य की कमी नहीं होने देनी, (सः) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (सबन्धूनां च) = अपने समान बन्धुओं का (विशाम् च) = प्रजाओं का तथा (अन्नस्य अन्नाद्यस्य च) = अन्न और अन्नाद्य का प्(रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है।
भावार्थ -
एक व्रात्य लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त हुआ-हुआ बन्धुओं व प्रजाओं को उन्नत करने का प्रयत्न करता है, अन्न व अन्नाद्य की कमी न होने देने के लिए यत्नशील होता है। इसप्रकार प्रजाओं का रञ्जन करता हुआ यह राजन्य होता है।
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