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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 17/ मन्त्र 10
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७

    गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वा॑म्। व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना॑न्य॒स्माके॑न वृ॒जने॑ना जयेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गोभि॑: । त॒रे॒म॒ । अम॑तिम् । दु॒:ऽएवा॑म् । यवे॑न । क्षुध॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । विश्वा॑म् ॥ व॒यम् । राज॑ऽभि: । प्र॒थ॒मा: । धना॑नि । अ॒स्माके॑न । वृ॒जने॑न । ज॒ये॒म॒ ॥१७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोभिष्टरेमामतिं दुरेवां यवेन क्षुधं पुरुहूत विश्वाम्। वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गोभि: । तरेम । अमतिम् । दु:ऽएवाम् । यवेन । क्षुधम् । पुरुऽहूत । विश्वाम् ॥ वयम् । राजऽभि: । प्रथमा: । धनानि । अस्माकेन । वृजनेन । जयेम ॥१७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. (गोभिः) = गोदुग्धादि से हम (अमतिम्) = बुद्धिहीनता व (दुरेवाम्) = दुर्गति को (सरेम) = पार कर जाएँ। गोदुग्ध का सेवन हमें दुर्गति व दुर्मति से दूर करे। हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो! हम (यवेन) = जौ के सेवन से (विश्वाम्) = सब (क्षुधम्) = भूख को दूर कर पाएँ। २. (वयम्) = हम (राजभिः) = जीवन को दीस व नियमित बनाने के द्वारा [राज़ दीप्ती, राज्-regulate] (प्रथमा:) = शक्तियों का विस्तार करनेवाले होते हुए (अस्माकेन वृजनेन) = अपने बल के द्वारा (धनानि जयेम) = जीवन धनों का विजय करनेवाले हों।

    भावार्थ - गोदुग्ध का सेवन हमें दुर्मति व दुर्गति से बचाए। जौ के द्वारा हम क्षुधा का निवारण करें। जीवन को दीप्त व नियमित बनाकर शक्तियों का विस्तार करते हुए धनों का विजय करें।

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