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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - सीता छन्दः - आर्षी गायत्री सूक्तम् - कृषि

    सीरा॑ युञ्जन्ति क॒वयो॑ यु॒गा वि त॑न्वते॒ पृथ॑क्। धीरा॑ दे॒वेषु॑ सुम्न॒यौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सीरा॑ । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । क॒वय॑: । यु॒गा । वि । त॒न्व॒ते॒ । पृथ॑क् । धीरा॑: । दे॒वेषु॑ । सु॒म्न॒ऽयौ ॥१७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुम्नयौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सीरा । युञ्जन्ति । कवय: । युगा । वि । तन्वते । पृथक् । धीरा: । देवेषु । सुम्नऽयौ ॥१७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (कवयः) = मेधावी लोग (सीरा) = हलों को (युञ्जन्ति) = कर्षण के लिए जोड़ते हैं। (धीरा:) = धीमान् बुद्धिमान ये लोग (युगा) = जुओं को (पृथक वितन्वते) = बैलों के कन्धों पर फैलाते हैं। २. ये बुद्धिमान कवि (देवेषु) = देवों के विषय में (सुम्नयौ) = [सुम्नं सुखकर हविलक्षणमन्नं यातः प्रापयतः] सुखकर अन्नों को प्राप्त करानेवाले बैलों को [युञ्जन्ति] जोतते हैं।

    भावार्थ -

    बुद्धिमान् पुरुष हलों को जोतते हैं, जुओं को बैलों के कन्धों पर डालते हैं, बैलों को जोतकर यज्ञार्थ अन्नों को प्राप्त करते हैं।

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