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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    येने॒दं भू॒तं भुव॑नं भवि॒ष्यत् परि॑गृहीतम॒मृते॑न॒ सर्व॑म्।येन॑ य॒ज्ञस्ता॒यते॑ स॒प्तहो॑ता॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। इ॒दम्। भू॒तम्। भुव॑नम्। भ॒वि॒ष्यत्। परि॑गृहीत॒मिति॑ परि॑ऽगृहीतम्। अ॒मृते॑न। सर्व॑म् ॥ येन॑। य॒ज्ञः। ता॒यते॑। स॒प्तहो॒तेति॑ स॒प्तऽहो॒ता। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु॒ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येनेदम्भूतम्भुवनम्भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। इदम्। भूतम्। भुवनम्। भविष्यत्। परिगृहीतमिति परिऽगृहीतम्। अमृतेन। सर्वम्॥ येन। यज्ञः। तायते। सप्तहोतेति सप्तऽहोता। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -

    पदार्थ = ( येन अमृतेन ) = जिस अविनाशी आत्मा के साथ युक्त होनेवाले मन से  ( भूतम् ) = व्यतीत हुआ  ( भुवनम् ) = वर्त्तमान काल सम्बन्धी और  ( भविष्यत् ) = आगे होनेवाला  ( सर्वम् इदम् ) = यह सब त्रिकालस्थ वस्तुमात्र  ( परिगृहीतम् ) = ग्रहण किया जाता, अर्थात् जाना जाता है । ( येन ) = जिससे  ( सप्त होता ) = सात मनुष्य होता जिस यज्ञ में अथवा पाँच प्राण छठा जीवात्मा और सातवां अव्यक्त, ये सात जिसमें लेने देनेवाले हों, वह  ( यज्ञः ) = अग्निष्टोमादि वा विज्ञान रूप व्यवहार  ( तायते ) =  विस्तृत किया जाता है  ( तत् मे मन: ) = वह योगयुक्त मेरा चित्त  ( शिवसङ्कल्पम् अस्तु ) = परमात्मा और मोक्ष विषयक सङ्कल्प करनेवाला हो। 

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे मनुष्यो ! जो मन योगाभ्यास के साधनों से सिद्ध हुआ, भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान इन तीनों कालों का ज्ञाता, सब सृष्टि का जाननेवाला, कर्म उपासना और ज्ञान का साधन है, ऐसे मन को कल्याण में ही लगाना चाहिए ।

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