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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    हिर॑ण्यपाणिमू॒तये॑ सवि॒तार॒मुप॑ह्वये। स चेत्ता॑ दे॒वता॑ प॒दम्॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यपाणि॒मिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिम्। ऊ॒तये॑। स॒वि॒तार॑म्। उप॑। ह्व॒ये॒। सः। चेत्ता॑। दे॒वता॑। प॒दम् ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुपह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यपाणिमिति हिरण्यऽपाणिम्। ऊतये। सवितारम्। उप। ह्वये। सः। चेत्ता। देवता। पदम्॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 10
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    भावार्थ -
    ( हिरण्यपाणिम् ) सुबर्ण को कंकण रूप में हाथों में रखने वाले, अथवा हिरण्य अर्थात् लोहे की बनी तलवार हाथ में रखने वाले, ऐश्वर्य के स्वामी, बलवान्, ( सवितारम् ) सबके आज्ञापक, वीर राजा को मैं (ऊतये ) रक्षा के लिये (उपह्वये) बुलाता हूँ । (सः) वह (चेत्ता) समस्त बातों का ज्ञाता सत्यासत्य का बतलाने वाला (देवता) साक्षात् देव, दाता और सर्वोच्च है । अथवा वह ( देवता पदम् ) समस्त विद्वानों का आश्रय है । परमेश्वर पक्ष में —सूर्यादि पदार्थों को वश करने 'हिरण्यपाणि' उस सविता सर्वोत्पादक, (चेत्ता) सर्वज्ञ, सत्यासत्य का ज्ञापक और ( पदम् ) परम प्राप्य (देवता) देव, प्रकाशक,सर्वप्रद है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १० – १४ सविता देवता । गायत्री । षड्जः ॥

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