यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 8
न॒दीभ्यः॑ पौञ्जि॒ष्ठमृ॒क्षीका॑भ्यो॒ नैषा॑दं पुरुषव्या॒घ्राय॑ दु॒र्मदं॑ गन्धर्वाप्स॒रोभ्यो॒ व्रात्यं॑ प्र॒युग्भ्य॒ऽ उन्म॑त्तꣳ सर्पदेवज॒नेभ्योऽप्र॑तिपद॒मये॑भ्यः कित॒वमी॒र्यता॑या॒ऽअकि॑तवं पिशा॒चेभ्यो॑ विदलका॒रीं या॑तु॒धाने॑भ्यः कण्टकीका॒रीम्॥८॥
स्वर सहित पद पाठन॒दीभ्यः॑। पौ॒ञ्जि॒ष्ठम्। ऋ॒क्षीका॑भ्यः। नैषा॑दम्। नैसा॑द॒मिति॒ नैऽसा॑दम्। पु॒रु॒ष॒व्या॒घ्रायेति॑ पुरुषऽव्या॒घ्राय॑। दु॒र्मद॒मिति॑ दुः॒ऽमद॑म्। ग॒न्ध॒र्वा॒प्स॒रोभ्य॒ इति॒ गन्धर्वाप्स॒रःऽसरःऽभ्यः॑। व्रात्य॑म्। प्र॒युग्भ्य॒ इति॑ प्र॒युक्ऽभ्यः॑। उन्म॑त्त॒मित्युत्ऽम॑त्तम्। स॒र्प॒दे॒व॒ज॒नेभ्य॒ इति॑ सर्पऽदेवज॒नेभ्यः॑। अप्र॑तिपद॒मित्यप्र॑तिऽपदम्। अये॑भ्यः। कि॒त॒वम्। ई॒र्य्यता॑यै। अकि॑तवम्। पि॒शा॒चेभ्यः॑। वि॒द॒ल॒का॒रीमिति॑ विदलऽका॒रीम्। या॒तु॒धाने॑भ्य॒ इति॑ यातु॒ऽधाने॑भ्यः। क॒ण्ट॒की॒का॒रीमिति॑ कण्टकीऽका॒रीम् ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नदीभ्यः पौञ्जिष्ठमृक्षीकाभ्यो नैषादम्पुरुषव्याघ्राय दुर्मदङ्गन्धर्वाप्सरोभ्यो व्रात्यम्प्रयुग्भ्य उन्मत्तँ सर्पदेवजनेभ्यो प्रतिपदमयेभ्यः कितवमीर्यतायाऽअकितवम्पिशाचेभ्यो बिदलकारीँयातुधानेभ्यः कण्टकीकारीम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
नदीभ्यः। पौञ्जिष्ठम्। ऋक्षीकाभ्यः। नैषादम्। नैसादमिति नैऽसादम्। पुरुषव्याघ्रायेति पुरुषऽव्याघ्राय। दुर्मदमिति दुःऽमदम्। गन्धर्वाप्सरोभ्य इति गन्धर्वाप्सरःऽसरःऽभ्यः। व्रात्यम्। प्रयुग्भ्य इति प्रयुक्ऽभ्यः। उन्मत्तमित्युत्ऽमत्तम्। सर्पदेवजनेभ्य इति सर्पऽदेवजनेभ्यः। अप्रतिपदमित्यप्रतिऽपदम्। अयेभ्यः। कितवम्। ईर्य्यतायै। अकितवम्। पिशाचेभ्यः। विदलकारीमिति विदलऽकारीम्। यातुधानेभ्य इति यातुऽधानेभ्यः। कण्टकीकारीमिति कण्टकीऽकारीम्॥८॥
विषय - ब्रह्मज्ञान, क्षात्रबल, मरुद् ( वैश्य ) विज्ञान आदि नाना ग्राह्य शिल्प पदार्थों की वृद्धि और उसके लिये ब्राह्मण, क्षत्रियादि उन-उन पदार्थों के योग्य पुरुषों की राष्ट्ररक्षा के लिये नियुक्ति । त्याज्य कार्यों के लिये उनके कर्त्ताओं को दण्ड का विधान ।
भावार्थ -
(३१) (नदीभ्यः) नदियों को पार करने के लिये (पौष्ठिम् ) काष्टखण्डों के पुओं या बड़े पशुओं की खालों की मशकों का बेड़ा बना 'कर तैरने वाले पुरुषों को नियुक्त करे । (३२) (ऋक्षीकाभ्यः नैषादम् ) रीछ जाति के वनचारी जन्तुओं के लिये नैषाद, निषाद या जंगली जाति के पुरुषों को नियुक्त करो । वे सीछ आदि का सुगमता से वध कर देते है अथवा — (ऋक्षीकाभ्यः) कुटिल चाल (वाली स्त्रियों को वश करने के लिये ( नैषादम् ) नीच धर्म से रहने वाले पुरुषों को ही नियुक्त करे ।
(३३) (पुरुषव्याघ्राय) पुरुषों में व्याघ्र के समान शूरवीर पुरुषों के पद के लिये (दुर्मदम् ) दुर्दान्त, अदम्य पुरुष को नियुक्त करे । (३४) (गन्धर्वाप्सरोभ्यः) युवा पुरुष और युवती स्त्रियों की रक्षा के लिये (व्रात्यम् ) बात अर्थात् मनुष्य समूहों के हितकारी विद्वान् को नियुक्त करो। (३५) (प्रयुग्भ्यः) उत्कृष्ट योगाभ्यासों के लिये प्रवृत्त, ( उन्मत्तम् ) उत्तम कोटि के हर्ष से युक्त योगी को जानो । ( ३६ ) ( सर्वदेवजनेभ्यः अप्रतिपदम् ) राष्ट्र भर में गुप्तचर के काम के और 'देवजन' अर्थात् युद्ध के विजयार्थ सैनिक कार्य के लिये अज्ञात पुरुष को प्राप्त करे, जिसको कोई जान न सके ऐसे को चर बनावे और जो किसी को कुछ नहीं समझे ऐसे वीर को सिपाही बनावे | (३७) (अयेभ्यः) पासों को खेलने के लिये ( कितवम् ) जुआरी पुरुष को दोषी जाने । ( ३८ ) ( ईर्यतायै अकितवम् ) दूसरों को सन्मार्ग पर ले चलने के लिये छल-कपट से रहित सज्जन पुरुष को नियुक्त करे । (३९) (पिशाचेभ्यः) कच्चे मांस पर गीधों की तरह रूप - भोग पर पड़ने वाले पुरुषों को वश करने के लिये ( विदलकारिम् ) विरुद्ध दल: खड़ा करा देने वाली भेद नीति का प्रयोग करे । (४०) ( यातुधानेभ्य: कण्टकी कारिम् ) कुटिल मार्गों से धन प्राप्त करने वाले और प्रजाओं को पीड़ा देने वाले, ठगों, चोर, लुटेरों के वश करने के लिये कण्टकी अर्थात् हिंसा करने वाली नीति वा सेना वा तीव्र दृष्टि का प्रयोग करे ।
कण्टकः कन्तपो वा कृन्ततेर्वा कन्टतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः । निरु० ॥ कण्टति पश्यति परान् इति स्कन्दस्वामी ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कृतिः । निषादः ॥
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