यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 26
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
1
याव॑ती॒ द्यावा॑पृथि॒वी याव॑च्च स॒प्त सिन्ध॑वो वितस्थि॒रे।ताव॑न्तमिन्द्र ते॒ ग्रह॑मू॒र्जा गृ॑ह्णा॒म्यक्षि॑तं॒ मयि॑ गृह्णा॒म्यक्षि॑तम्॥२६॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑ती॒ऽइति॒ याव॑ती। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। याव॑त्। च॒। स॒प्त। सिन्ध॑वः। वि॒त॒स्थि॒रे इति॑ विऽतस्थि॒रे ॥ ताव॑न्तम्। इ॒न्द्र॒। ते॒। ग्र॑हम्। ऊ॒र्जा। गृ॒ह्णा॒मि॒। अक्षि॑तम्। मयि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अक्षि॑तम् ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यावती द्यावापृथिवी यावच्च सप्त सिन्धवो वितस्थिरे । तवन्तमिन्द्र ते ग्रहमूर्जा गृह्णाम्यक्षितम्मयि गृह्णाम्यक्षितम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
यावतीऽइति यावती। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। यावत्। च। सप्त। सिन्धवः। वितस्थिरे इति विऽतस्थिरे॥ तावन्तम्। इन्द्र। ते। ग्रहम्। ऊर्जा। गृह्णामि। अक्षितम्। मयि। गृह्णामि। अक्षितम्॥२६॥
विषय - विद्वान् के उद्देश्य और कर्तव्य ।
भावार्थ -
(यावती) जितने बड़े ( द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि या सूर्य और भूमि और उनके समान स्त्री पुरुष एवं राजा प्रजावर्ग हैं और (यावत्) जहां तक ( सिन्धवः ) सातों समुद्र (वितस्थिरे ) विविध दिशाओं में फैले हैं। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् (ते) तेरे लिये ( तावन्तम् ) वहां तक का ( ग्रहम् ) शासनाधिकार (ऊर्जा) बल पराक्रम से (गृहणामि) ग्रहण करूं और वहां तक ही मैं ( मयि ) अपने में ( अक्षितम्- ग्रहम् ) अक्षय, ग्रहणसामध्यं को (गृहणामि ) धारण करूं ।
टिप्पणी -
इन्द्रः । स्वराट् पंक्तिः । पंचमः ॥
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