ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 1
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तदिदा॑स॒ भुव॑नेषु॒ ज्येष्ठं॒ यतो॑ ज॒ज्ञ उ॒ग्रस्त्वे॒षनृ॑म्णः । स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो नि रि॑णाति॒ शत्रू॒ननु॒ यं विश्वे॒ मद॒न्त्यूमा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । आ॒स॒ । भुव॑नेषु । ज्येष्ठ॑म् । यतः॑ । ज॒ज्ञे । उ॒ग्रः । त्वे॒षऽनृ॑म्णः । स॒द्यः । ज॒ज्ञा॒नः । नि । रि॒णा॒ति॒ । शत्रू॑न् । अनु॑ । यम् । विश्वे॑ । मद॑न्ति । ऊमाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो जज्ञ उग्रस्त्वेषनृम्णः । सद्यो जज्ञानो नि रिणाति शत्रूननु यं विश्वे मदन्त्यूमा: ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । इत् । आस । भुवनेषु । ज्येष्ठम् । यतः । जज्ञे । उग्रः । त्वेषऽनृम्णः । सद्यः । जज्ञानः । नि । रिणाति । शत्रून् । अनु । यम् । विश्वे । मदन्ति । ऊमाः ॥ १०.१२०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में परमात्मा ने संसार रचा, प्रकाशक-प्रकाश्य पिण्ड रखे, जड़-जङ्गम पदार्थ भी रचे, उसके रचे वेद से ज्ञान ग्रहण कर ब्रह्मानन्द और सांसारिक सुख को भोगते हैं जन।
पदार्थ -
(भुवनेषु) उत्पन्न भूतों में (तत्-इत्) वह ही (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ ब्रह्म (आस) पूर्व से वर्तमान है (यतः) जिस ब्रह्म से (उग्रः) तीक्ष्ण या प्रतापी (त्वेषनृम्णः) दीप्ति से बलवान् सूर्य या ज्ञान प्रतापवान् जीवात्मा (जज्ञे) प्रादुर्भूत होता है (सद्यः-जज्ञानः) तुरन्त प्रादुर्भूत हुआ (शत्रून्) शत्रुओं को नष्ट करने योग्यों को (निरिणाति) नष्ट करता है-जीवात्मा अपने ज्ञान से नीचे ले जाता है (यम्-अनु) जिस सूर्य या जीवात्मा को लक्ष्य करके (विश्वे-ऊमाः) सब रक्षणीय जीव (मदन्ति) हर्षित होते हैं ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा उत्पन्न हुए पदार्थों में पूर्व से वर्त्तमान महान् है, उससे तीक्ष्ण तेजवाला सूर्य और ज्ञानी जीवात्मा प्रादुर्भूत होते हैं, सूर्य अपने तीक्ष्ण ताप से विरोधी अन्धकारादि को नष्ट करता है और जीवात्मा ज्ञान से विरोधी को अनुकूल बनाता है, इनको लक्ष्य करके सब हर्षित होते हैं ॥१॥
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