ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 2
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वा॒वृ॒धा॒नः शव॑सा॒ भूर्यो॑जा॒: शत्रु॑र्दा॒साय॑ भि॒यसं॑ दधाति । अव्य॑नच्च व्य॒नच्च॒ सस्नि॒ सं ते॑ नवन्त॒ प्रभृ॑ता॒ मदे॑षु ॥
स्वर सहित पद पाठव॒वृ॒धा॒नः । शव॑सा । भूरि॑ऽओजाः । शत्रुः॑ । दा॒साय॑ । भि॒यस॑म् । द॒धा॒ति॒ । अवि॑ऽअनत् । च॒ । वि॒ऽअ॒नत् । च॒ । सस्नि॑ । सम् । ते॒ । न॒व॒न्त॒ । प्रऽभृ॑ता । मदे॑षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
वावृधानः शवसा भूर्योजा: शत्रुर्दासाय भियसं दधाति । अव्यनच्च व्यनच्च सस्नि सं ते नवन्त प्रभृता मदेषु ॥
स्वर रहित पद पाठववृधानः । शवसा । भूरिऽओजाः । शत्रुः । दासाय । भियसम् । दधाति । अविऽअनत् । च । विऽअनत् । च । सस्नि । सम् । ते । नवन्त । प्रऽभृता । मदेषु ॥ १०.१२०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(शवसा) बल से (वावृधानः) बढ़ा हुआ-वर्धमान (भूरि-ओजाः) बहुत ओज-आत्मबल जिसका है, ऐसा वह परमात्मा (शत्रुः) पापीजन का नाश-करनेवाला (दासाय) उपक्षय करनेवाले हमारे विरोधी के लिये (भियसम्) भय को (दधाति) देता है (अव्यनत्-च) न प्राण लेता हुआ और (व्यनत् च) प्राण लेता हुआ (सस्नि) स्नात-शुद्ध होता है (ते-मदेषु) तेरे दिये हर्षों में (प्रभृता) प्रपालित प्राणी वृन्द (सं नवन्त) सङ्गत होते हैं ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा अपने आत्मबल से बढ़ा हुआ पापीजन को नष्ट करनेवाला है, उपासकों को क्षीण करनेवाले विरोधी को भय देता है-दण्ड देता है, प्राण लेनेवाली या न प्राण लेनेवाली वस्तु उपासकों के लिये शुद्ध और निर्दोष हो जाती है, सब प्राणी उससे पालित होते हुए उसके दिये हुए सुख हर्षों में अपने को सङ्गत करते हैं ॥२॥
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