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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 120/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वे क्रतु॒मपि॑ वृञ्जन्ति॒ विश्वे॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भव॒न्त्यूमा॑: । स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे इति॑ । क्रतु॑म् । अपि॑ । वृ॒ञ्ज॒न्ति॒ । विश्वे॑ । द्विः । यत् । ए॒ते । त्रिः । भव॑न्ति । ऊमाः॑ । स्वा॒दोः । स्वादी॑यः । स्वा॒दुना॑ । सृ॒ज॒ । सम् । अ॒दः । सु । मधु॑ । मधु॑ना । अ॒भि । यो॒धीः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे क्रतुमपि वृञ्जन्ति विश्वे द्विर्यदेते त्रिर्भवन्त्यूमा: । स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वे इति । क्रतुम् । अपि । वृञ्जन्ति । विश्वे । द्विः । यत् । एते । त्रिः । भवन्ति । ऊमाः । स्वादोः । स्वादीयः । स्वादुना । सृज । सम् । अदः । सु । मधु । मधुना । अभि । योधीः ॥ १०.१२०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 120; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (विश्वे-ऊमाः) हे परमात्मन् ! तेरे द्वारा सब रक्षणीय मनुष्य (क्रतुम्) अपने कर्त्तव्य कर्म को (त्वे) तेरे में (वृञ्जन्ति) त्यागते हैं-समर्पित करते हैं (यत्) जिससे कि (एते) ये (द्विः) प्रथम एक ब्रह्मचारी पुनः विवाह के अनन्तर पत्नी के सहित दो हुए (त्रिः) फिर सन्तान होने पर तीन-परिवारवाले (अपि भवन्ति) भी हो जाते हैं, यह संसार है, (स्वादोः) परन्तु इस पारिवारिक स्वाद का (स्वादीयः) तू अत्यन्त स्वादवाला है (स्वादुना) उस अपने स्वादुरूप से (सं सृज) मुझे सङ्गत कर, परिवार में तेरी उपासना चलती रहे (अदः) उस (सुमधु) सुमधु को (मधुना) पारिवारिक मधु-गृहस्थ सुख के साथ (अभि योधीः) अभिगत कर या मिलादे ॥३॥

    भावार्थ - परमात्मा के सब मनुष्य रक्षणीय हैं, रक्षा चाहनेवाले हैं, वे सब रक्षणीय बन जाते हैं, जबकि अपने कर्त्तव्य कर्म को परमात्मा के प्रति समर्पित कर देते हैं, निष्काम बन जाते हैं, वे ब्रह्मचारी हों या विवाहित-पति पत्नी हों या सन्तानसहित परिवारवाले हों। इस प्रकार संसार में जो लोग सुख स्वाद पाते हैं, उससे भी अधिक सुख स्वादवाला परमात्मा उसकी उपासना यदि इनमें चलती रहे, तो उसका उत्तम स्वादरूप उस सांसारिक स्वाद में मिल जाये, तो सांसारिक जीवन भी स्वादवाला हो जाता है और पतन से बच जाता है ॥३॥

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