Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 129 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 129/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिः परमेष्ठी देवता - भाववृत्तम् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नास॑दासी॒न्नो सदा॑सीत्त॒दानीं॒ नासी॒द्रजो॒ नो व्यो॑मा प॒रो यत् । किमाव॑रीव॒: कुह॒ कस्य॒ शर्म॒न्नम्भ॒: किमा॑सी॒द्गह॑नं गभी॒रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । अस॑त् । आ॒सी॒त् । नो इति॑ । सत् । आ॒सी॒त् । त॒दानी॑म् । न । आ॒सी॒त् । रजः॑ । नो इति॑ । विऽओ॑म । प॒रः । यत् । किम् । आ । अ॒व॒री॒व॒रिति॑ । कुह॑ । कस्य॑ । शर्म॑न् । अम्भः॑ । किम् । आ॒सी॒त् । गह॑नम् । ग॒भी॒रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् । किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । असत् । आसीत् । नो इति । सत् । आसीत् । तदानीम् । न । आसीत् । रजः । नो इति । विऽओम । परः । यत् । किम् । आ । अवरीवरिति । कुह । कस्य । शर्मन् । अम्भः । किम् । आसीत् । गहनम् । गभीरम् ॥ १०.१२९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 129; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (तदानीम्) सृष्टि से पूर्व उस समय प्रलय अवस्था में (असत्-न-आसीत्) शून्य नितान्त अभाव न था (सत्-नो-आसीत्) सत्-प्रकटरूप भी कुच्छ न था (रजः-न-आसीत्) रञ्जनात्मक कणमय गगन-अन्तरिक्ष भी न था (परः-व्योम न-उ-यत्) विश्व का परवर्ती सीमारूप विशिष्ट रक्षक आवर्त-घेरा खगोल आकाश भी न था (किम्-आ-अवरीवः) आवरणीय के अभाव से भलीभाँति आवरक भी क्या हो सके ? न था (कुह कस्य शर्मन्) कहाँ ? न कहीं भी तथा प्रदेश था, किसके सुखनिमित्त हो (गहनं गभीरम्-अम्भः किम्-आसीत्) गहन गम्भीर सूक्ष्म जल भी क्या हो सके अर्थात् नहीं था, जिससे भोग्य वस्तु उत्पन्न हो, जिसमें सृष्टि का बीज ईश्वर छोड़े ॥१॥

    भावार्थ - सृष्टि से पूर्व न शून्यमात्र अत्यन्त अभाव था, परन्तु वह जो था, प्रकटरूप भी न था, न रञ्जनात्मक कणमय गगन था, न परवर्ती सीमावर्ती आवर्त घेरा था, जब आवरणीय पदार्थ या जगत् न था, तो आवर्त भी क्या हो, वह भी न था, कहाँ फिर सुख शरण किसके लिये हो एवं भोग्य भोक्ता की वर्तमानता भी न थी, सूक्ष्मजलपरमाणुप्रवाह या परमाणुसमुद्र भी न था, कहने योग्य कुछ न था, पर था, कुछ अप्रकटरूप था ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top