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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 129/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिः परमेष्ठी देवता - भाववृत्तम् छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न मृ॒त्युरा॑सीद॒मृतं॒ न तर्हि॒ न रात्र्या॒ अह्न॑ आसीत्प्रके॒तः । आनी॑दवा॒तं स्व॒धया॒ तदेकं॒ तस्मा॑द्धा॒न्यन्न प॒रः किं च॒नास॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । मृ॒त्युः । आ॒सी॒त् । अ॒मृत॑म् । न । तर्हि॑ । न । रात्र्याः॑ । अह्नः॑ । आ॒सी॒त् । प्र॒ऽके॒तः । आनी॑त् । अ॒वा॒तम् । स्व॒धया॑ । तत् । एक॑म् । तस्मा॑त् । ह॒ । अ॒न्यत् । न । प॒रः । किम् । च॒न । आ॒स॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः । आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । मृत्युः । आसीत् । अमृतम् । न । तर्हि । न । रात्र्याः । अह्नः । आसीत् । प्रऽकेतः । आनीत् । अवातम् । स्वधया । तत् । एकम् । तस्मात् । ह । अन्यत् । न । परः । किम् । चन । आस ॥ १०.१२९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 129; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (मृत्युः-न-आसीत्) सृष्टि से पूर्व मृत्यु भी न था तो फिर क्या अमृत था ? (तर्हि) उस समय मृत्यु के न होने पर (अमृतं न) अमृत न था (रात्र्याः अह्नः) रात्रि का दिन का (प्रकेतः) प्रज्ञान-पूर्वरूप (न-आसीत्) नहीं था (तत्-एकम्) तब वह एक तत्त्व (अवातम्) वायु की अपेक्षा से रहित (स्वधया) स्व धारणशक्ति से (आनीत्) स्वसत्तारूप से जीता जागता ब्रह्मतत्त्व था (तस्मात्-अन्यत्) उससे भिन्न (किम्-चन) कुछ भी (परः-न-आस) उससे अतिरिक्त नहीं था ॥२॥

    भावार्थ - सृष्टि से पूर्व मृत्यु नहीं था, क्योंकि मरने योग्य कोई था नहीं, तो मृत्यु कैसे हो ? मृत्यु के अभाव में अमृत हो, सो अमृत भी नहीं, क्योंकि मृत्यु की अपेक्षा से अमृत की कल्पना होती है, अतः अमृत के होने की कल्पना भी नहीं, दिन रात्रि का पूर्वरूप भी न था, क्योंकि सृष्टि होने पर दिन रात्रि का व्यवहार होता है, हाँ एक तत्त्व वायु द्वारा जीवन लेनेवाला नहीं, किन्तु स्वधारणशक्ति से स्वसत्तारूप जीवन धारण करता हुआ जीता जागता ब्रह्म था, उससे अतिरिक्त और कुछ न था ॥२॥

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