ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 147/ मन्त्र 1
श्रत्ते॑ दधामि प्रथ॒माय॑ म॒न्यवेऽह॒न्यद्वृ॒त्रं नर्यं॑ वि॒वेर॒पः । उ॒भे यत्त्वा॒ भव॑तो॒ रोद॑सी॒ अनु॒ रेज॑ते॒ शुष्मा॑त्पृथि॒वी चि॑दद्रिवः ॥
स्वर सहित पद पाठश्रत् । ते॒ । द॒धा॒मि॒ । प्र॒थ॒माय॑ । म॒न्यवे॑ । अह॑न् । यत् । वृ॒त्रम् । नर्य॑म् । वि॒वेः । अ॒पः । उ॒भे इति॑ । यत् । त्वा॒ । भव॑तः । रोद॑सी॒ इति॑ । अनु॑ । रेज॑ते । शुष्मा॑त् । पृ॒थि॒वी । चि॒त् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवेऽहन्यद्वृत्रं नर्यं विवेरपः । उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनु रेजते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः ॥
स्वर रहित पद पाठश्रत् । ते । दधामि । प्रथमाय । मन्यवे । अहन् । यत् । वृत्रम् । नर्यम् । विवेः । अपः । उभे इति । यत् । त्वा । भवतः । रोदसी इति । अनु । रेजते । शुष्मात् । पृथिवी । चित् । अद्रिऽवः ॥ १०.१४७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 147; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में परमात्मा द्युलोक पृथिवीलोक को वश में करता है, अन्तरिक्ष भी उसके अधीन काँपता है, विमानों विद्युत्तरङ्गों का आधार बना है, मेघ को वर्षाता है अन्नोपत्ति के लिए इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(अद्रिवः) हे अद्रिवन्-आदारण बलवाले-छिन्नभिन्नकारक बलवाले परमात्मन् ! (ते प्रथमाय मन्यवे) तेरे परम वधसाधन के लिए (श्रत्-दधामि) श्रद्धा करता हूँ आदर करता हूँ (यत्) जिससे कि (नर्यं-वृत्रम् अहन्) नरहितकर आवरक मेघ का हनन करता है नीचे-गिराता है (अपः-विवेः) जलों को प्रवाहित करता है (यत्-त्वा-अनु) कि जो तेरे अधीन (उभे रोदसी भवतः) दोनों द्युलोक और पृथिवीलोक हैं (शुष्मात्) तेरे बल से (पृथिवी-चित्-रेजते) अन्तरिक्ष भी काँपता है ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा भी बड़ा बलवान् है, मेघ को छिन्न-भिन्न करके नीचे पानी बहाता है, द्युलोक पृथिवीलोक तेरी अधीनता में रहते हैं, अन्तरिक्ष में कम्पन विद्युत्सञ्चार, वायुप्रचार परमात्मा के शासन से होता है ॥१॥
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