ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 154/ मन्त्र 5
स॒हस्र॑णीथाः क॒वयो॒ ये गो॑पा॒यन्ति॒ सूर्य॑म् । ऋषी॒न्तप॑स्वतो यम तपो॒जाँ अपि॑ गच्छतात् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्र॑ऽनीथाः । क॒वयः॑ । ये । गो॒पा॒यन्ति॑ । सूर्य॑म् । ऋषी॑न् । तप॑स्वतः । य॒म॒ । त॒पः॒ऽजान् । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रणीथाः कवयो ये गोपायन्ति सूर्यम् । ऋषीन्तपस्वतो यम तपोजाँ अपि गच्छतात् ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽनीथाः । कवयः । ये । गोपायन्ति । सूर्यम् । ऋषीन् । तपस्वतः । यम । तपःऽजान् । अपि । गच्छतात् ॥ १०.१५४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 154; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(ये सहस्रणीथाः) जो बहुत ज्ञाननेत्रवाले (कवयः) मेधावी (सूर्यं गोपायन्ति) ज्ञान सूर्य को-वेद को अपने अन्दर धारण करते हैं (तपस्वतः) तपस्वी (तपोजान्) तप से प्रसिद्ध-सम्पन्न (ऋषीन्) ऋषियों को (यम) हे ब्रह्मचारी ! (तान्-अपि-गच्छतात्) उनको भी ज्ञानप्राप्ति के लिए प्राप्त हो ॥५॥
भावार्थ - ब्रह्मचारी को चाहिए कि बहुत ज्ञान नेत्रवाले मेधावी जन, जो वेद को अपने अन्दर धारण किये हैं, उन ऐसे ऋषियों के पास पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए या उन जैसा बनने के लिए प्राप्त हो ॥५॥
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