ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 155/ मन्त्र 1
ऋषिः - शिरिम्बिठो भारद्वाजः
देवता - अलक्ष्मीघ्नम्
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अरा॑यि॒ काणे॒ विक॑टे गि॒रिं ग॑च्छ सदान्वे । शि॒रिम्बि॑ठस्य॒ सत्व॑भि॒स्तेभि॑ष्ट्वा चातयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअरा॑यि । काणे॑ । विऽक॑टे । गि॒रिम् । ग॒च्छ॒ । स॒दा॒न्वे॒ । शि॒रिम्बि॑ठस्य । सत्व॑ऽभिः । तेभिः॑ । त्वा॒ । चा॒त॒या॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरायि काणे विकटे गिरिं गच्छ सदान्वे । शिरिम्बिठस्य सत्वभिस्तेभिष्ट्वा चातयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअरायि । काणे । विऽकटे । गिरिम् । गच्छ । सदान्वे । शिरिम्बिठस्य । सत्वऽभिः । तेभिः । त्वा । चातयामसि ॥ १०.१५५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 155; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में दुर्भिक्ष विपत्ति का वर्णन, उसका परिणाम हाहाकारादि, उसके दूर करने के उपाय, किसी प्रकार से वर्षा करना, अन्य देश से यन्त्रचालित नौका द्वारा अन्न लाना आदि विषय हैं।
पदार्थ -
(अरायि) न देनेवाली दुर्भिक्षरूप दरिद्रता देवी ! तू किसी विद्वान् के लिए भी भिक्षा नहीं देती है, (सदान्वे) सदा शब्द करनवाली हाहाकार शब्द करनेवाली परस्पर मारकाट करनेवाली (काणे) एकदृष्टिवाली सम्पन्न जनों को ही देखनेवाली असम्पन्न को नहीं, ऐसी (विकटे) विकलगतिवाली (त्वं गिरिं गच्छ) तू पर्वत को जा नगर को त्याग या मेघ को प्राप्त कर, उसे मार, नीचे गिरा, यह आलङ्कारिक कथन है (शिरिम्बिठस्य) अन्तरिक्ष में रहनेवाले मेघ (सत्वभिः-त्वा चातयामसि) यज्ञ द्वारा सूक्ष्म तत्त्वों को हम नष्ट करते हैं ॥१॥
भावार्थ - दुर्भिक्ष लोगों को खाना न देनेवाली एक आपत्ति है, जिसमें विद्वान् को भी भोजन नहीं मिलता, जनता में हाहाकार करानेवाली है, केवल सम्पन्न लोग ही खा पी सकते हैं, सामान्य जन नहीं, उसे होम के सूक्ष्म तत्त्वों से मेघ को बरसा कर मिटाना चाहिए ॥१॥
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