ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 164/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रचेताः
देवता - दुःस्वप्नघ्नम्
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अपे॑हि मनसस्प॒तेऽप॑ क्राम प॒रश्च॑र । प॒रो निॠ॑त्या॒ आ च॑क्ष्व बहु॒धा जीव॑तो॒ मन॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒हि॒ । म॒न॒सः॒ । प॒ते॒ । अप॑ । क्रा॒म॒ । प॒रः । च॒र॒ । प॒रः । निःऽऋ॑त्यै । आ । च॒क्ष्व॒ । ब॒हु॒धा । जीव॑तः । मनः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेहि मनसस्पतेऽप क्राम परश्चर । परो निॠत्या आ चक्ष्व बहुधा जीवतो मन: ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इहि । मनसः । पते । अप । क्राम । परः । चर । परः । निःऽऋत्यै । आ । चक्ष्व । बहुधा । जीवतः । मनः ॥ १०.१६४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 164; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में मानसिक रोग के मन के दुःसङ्कल्प को नष्ट करने के उपाय, परमात्मा की उपासना, शिवसङ्कल्प कहा है।
पदार्थ -
(मनस्पते) हे मन के गिरानेवाले क्लेश देनेवाले रोग ! (अप इहि) मेरे शरीर से दूर हो जा (अपक्राम) भाग जा, उलटे मुँह हो जा (परः-चर) परे चला जा (निर्ऋत्यै) मृत्यु के लिये (परः-आ चक्ष्व) परे रहता हुआ न आवे, यह भलीभाँति कह, यतः (बहुधा) बहुत प्रकार के किए उपचारोंवाला (जीवतः-मनः) जीवन धारण करते हुए का मेरा मन है, इसमें निराशा नहीं है ॥१॥
भावार्थ - रोगी को निराश नहीं होना चाहिए, किन्तु रोग दूर करने के अनेक औषधोपचार करते हुए मानसिक संकल्प से रोग बढ़ने या मृत्यु तक को भगाने के लिये साहस धारण करना चाहिए ॥१॥
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