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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 164 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 164/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रचेताः देवता - दुःस्वप्नघ्नम् छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    भ॒द्रं वै वरं॑ वृणते भ॒द्रं यु॑ञ्जन्ति॒ दक्षि॑णम् । भ॒द्रं वै॑वस्व॒ते चक्षु॑र्बहु॒त्रा जीव॑तो॒ मन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रम् । वै । वर॑म् । वृ॒ण॒ते॒ । भ॒द्रम् । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । दक्षि॑णम् । भ॒द्रम् । वै॒व॒स्व॒ते । चक्षुः॑ । ब॒हु॒ऽत्रा । जीव॑तः । मनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रं वै वरं वृणते भद्रं युञ्जन्ति दक्षिणम् । भद्रं वैवस्वते चक्षुर्बहुत्रा जीवतो मन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रम् । वै । वरम् । वृणते । भद्रम् । युञ्जन्ति । दक्षिणम् । भद्रम् । वैवस्वते । चक्षुः । बहुऽत्रा । जीवतः । मनः ॥ १०.१६४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 164; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (भद्रं वरं वै वृणते) कल्याणकर वरणीय वस्तु को ही चाहते हैं (भद्रं दक्षिणं युञ्जन्ति) कल्याणकर शक्ति वैभव को आत्मा में युक्त करते हैं, यह प्रवृत्ति सबकी है (भद्रं वैवस्वते चक्षुः) कल्याणकर दर्शन काल-समय के लिये रखते हैं कि हम चिरजीवित रहें, जीवन के लम्बे समय के लिये दर्शनाकाङ्क्षा रहे (बहुत्र जीवतः-मनः) बहुत अवसरों पर जीवनधारण करनेवाले के समान मेरा मन बना है, बना रहे ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य को कल्याणकर वस्तु को चाहना, कल्याणकर शक्ति वैभव आत्मा में सात्म्य करना, धारण करना और अपने जीवनकाल के लिए कल्याणकर दर्शन प्रतीक्षारूप में रखना चाहिए, यह जीवित रहनेवाले का मन होना चाहिए ॥२॥

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