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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 174 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 174/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अभीवर्तः देवता - राज्ञःस्तुतिः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒भि त्वा॑ दे॒वः स॑वि॒ताभि सोमो॑ अवीवृतत् । अ॒भि त्वा॒ विश्वा॑ भू॒तान्य॑भीव॒र्तो यथास॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॑ । दे॒वः । स॒वि॒ता । अ॒भि । सोमः॑ । अवीवृतत् । अ॒भि । त्वा॒ । विश्वा॑ । भू॒तानि॑ । अ॒भि॒ऽव॒र्तः । यथा॑ । अस॑सि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा देवः सविताभि सोमो अवीवृतत् । अभि त्वा विश्वा भूतान्यभीवर्तो यथाससि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । देवः । सविता । अभि । सोमः । अवीवृतत् । अभि । त्वा । विश्वा । भूतानि । अभिऽवर्तः । यथा । अससि ॥ १०.१७४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 174; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 32; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (त्वा) हे अभीवर्त हवि ! विजय का साधन गन्धमय धूम तुझे (सविता देवः) अग्निदेव (अभि-अवीवृतत्) शत्रुओं के प्रति पुनः-पुनः प्रवृत्त करता है-फैलाता है (सोमः) वायु (अभि) शत्रुओं के प्रति प्रेरित करता है (विश्वा भूतानि) सारी वस्तुओं को (यया-अभीवर्तः) जिससे कि आक्रमण साधनभूत प्रयोग (अससि) तू सफल होवे ॥३॥

    भावार्थ - इस गन्धकयुक्त धूमप्रयोग को अग्नि प्रज्वलित करता है और वायु फैलाता है, उसका प्रभाव सभी वस्तुओं तक जाता है, ये साधन संग्राम में सफल होने के लिए हैं ॥३॥

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